कुछ दिन पहले ही भारत में उपराष्ट्रपति का पद तथा स्थिति पर तमाम चिंताएं और सवाल उठाये गये। भारतीय लोकतंत्र में उपराष्ट्रपति का पद एक मजबूत संवैधानिक स्तंभ है। यह न केवल उपराष्ट्रपति के उत्तराधिकारी के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि राज्यसभा के सभापति के रूप में भी संसदीय प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं। फिर भी हाल के वर्षों से इस पद की प्रतिष्ठा पर सवाल उठ रहे हैं। राजनीतिक पक्षपात संसद में हंगामें और बदलती सार्वजनिक धारणा उपराष्ट्रपति के पद की गरिमा को प्रभावित किया है। आखिर इस संवैधानिक पद की चमक क्यों? फीकी रही और इसे कैसे पुनः स्थापित किया जा सकता है विचारणीय प्रश्न है!
उपराष्ट्रपति की दोहरी भूमिका, दोहरे दायित्व से युक्त है, पहले यह राष्ट्रपति की अनुपस्थिति या असमर्थता की स्थिति में कार्यवाहक राष्ट्रपति की जिम्मेदारी संभालता है जिससे संवैधानिक निरंतरता बनी रहती है। दूसरा राज्यसभा के सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति संसद के उच्च सदन की कार्यवाही को भी संचालित करता है। इस भूमिका में निष्पक्षता और अनुशासन सर्वोपरि है। क्योंकि यह विधायी प्रक्रिया को सुचारू बनता हैl इसके अलावा उपराष्ट्रपति राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करता है जिससे इस पद का कूटनीतिक महत्व बढ़ता है।
ऐतिहासिक रूप से डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने 1992 से 1962 तक राज्यसभा की गरिमा को बनाए रखते हुए संसदीय चर्चाओं को समृद्ध किया।
लेकिन आज इस पद की छवि पहले जैसी नहीं रही पिछले कुछ वर्षों में उपराष्ट्रपति के पद गरिमा पर कई कारकों ने असर डाला है। सबसे बड़ा कारण राजनीतिक पक्षपात का है। हाल के कुछ वर्ष उपराष्ट्रपतियों पर सत्तारूढ़ दल के प्रति झुकाव के आरोप लगे हैं। उदाहरण के लिए 2020 में कृषि बिलों पर राज्यसभा की चर्चा के दौरान तत्कालीन उपराष्ट्रपति वकैया नायडू के कुछ फसलों जैसे विपक्ष की मांगों को अस्वीकार करना, ने विवाद को जन्म दिया। विपक्ष ने इसे निष्पक्षता की कमी माना।
संसद में बढ़ता हंगामा भी एक बड़ी चुनौती है। राज्यसभा में सांसदों के बीच तीखी नोख-झोक और अव्यवस्था ने उपराष्ट्रपति की भूमिका को कठिन बना दिया है। 2023 में विपक्षी सांसदों के निलंबन जैसे कदमों ने इस पद की तटस्थता तथा गरिमा पूर्ण छवि को सवालों के घेरे में ला दिया है। यूं कहा जाए कि इस पद की प्रतिष्ठा को धक्का लगा है। इसके अलावा उपराष्ट्रपति चयन में राजनीतिक निष्ठा को प्राथमिकता मिलने से भी इस पद की गरिमा प्रभावित हुई है।
पहले जहां डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन या जाकिर हुसैन जैसे व्यक्तियों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर होता था। वही आज यहां प्रक्रिया अधिक राजनीतिक हो गई है। आम जनता में इस पद के संवैधानिक महत्व की समझ बहुत कम है जिसके चलते इसे अक्सर औपचारिक या कम महत्वपूर्ण माना जाता है। 21 जुलाई 2025 को उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिये जबकि उन पर कुछ और भी आरोप लगे। जैसे न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का मामला इसमें जगदीप धनखड़ ने विपक्षी सासदों के प्रस्ताव को स्वीकार किया जिसमें उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को निलंबित करने की मांग की गई थी जिन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। उनके घर से पैसों की बड़ी रकम बरामद हुई थी। फैसला सरकार के साथ तनाव पैदा करने वाला था।
ऑपरेशन सिंदूर कुछ रिपोर्टरों ने यह दावा किया कि धनखड़ ने भाजपा नेता से ऑपरेशन सिंदूर में इस्तेमाल किए गए विमानों के बारे में सवाल किये जिससे सरकार के साथ उनके संबंध खराब हो सकते थे। कुछ स्रोतों के अनुसार बीजेपी के सांसदों ने धनखड़ के खिलाफ अविश्वास व्यक्त किया जो इस्तीफा के कारण बने। हालांकि आधिकारिक बयान स्वास्थ्य कारणों पर जोर देता है। उपरोक्त बातों, संकेतों और घटनाओं को अगर आधार बनाया जाय तो राजनीतिक दबाव से इनकार नहीं किया जा सकता।
उपराष्ट्रपति की गरिमा को पुनः स्थापित करने का सकारात्मक प्रयास होना चाहिए, संसदीय नियमों का कड़ाई से पालन और विपक्ष को पर्याप्त अवसर देना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं। दूसरा संसद में अनुशासन बढ़ाने के लिए सुधार जरूरी है, जैसे सांसदों के लिए आचार संहिता लागू करना चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता योग्यता को प्राथमिकता देना। राष्ट्रीय सहमति के आधार पर चुने गये उपराष्ट्रपति इस पद की गरिमा को बढ़ा सकते हैं। आम जनता की भी जिम्मेदारी है कि जागरूक रहे और उपराष्ट्रपति के संवैधानिक पद की गरिमा को संरक्षित करें, ताकि हमारा लोकतंत्र और मजबूत हो।
अपराजिता यादव
स्वतंत्र लेखिका
नई दिल्ली।