काशी में त्रिपिंडी श्राद्धः पितरों की मुक्ति और वंशजों का कल्याण

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काशी में त्रिपिंडी श्राद्धः पितरों की मुक्ति और वंशजों का कल्याण

काशी, जिसे अनंत मुक्तिधाम कहा जाता है, भारतीय संस्कृति और धर्म के गहन रहस्यों का केंद्र है। यहां का पिशाचमोचन कुंड विशेष रूप से पितरों की शांति और मोक्ष के लिए प्रसिद्ध है। इसी कुंड पर संपन्न होने वाला त्रिपिंडी श्राद्ध अपने आप में अद्वितीय है, जो न केवल पितरों को प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु की पीड़ा से मुक्त करता है, बल्कि वंशजों को भी पितृ ऋण से मुक्ति प्रदान करता है। मतलब साफ है काशी केवल भारत ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व के हिंदुओं के लिए मोक्षधाम है। यहां मृत्यु होने पर महादेव स्वयं आत्मा को मुक्त करते हैं। पिशाचमोचन कुंड में त्रिपिंडी श्राद्ध कराने से पितरों को शीघ्र मुक्ति मिलती है। विदेशी हिंदू भी अपने पितरों का श्राद्ध कराने काशी आते हैं। यह अनुष्ठान पीढ़ियों के लिए आध्यात्मिक सेतु का कार्य करता है। वैसे भी श्राद्ध केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि स्मृति और कृतज्ञता का संस्कार है। ब्राह्मण भोज और दान से सामाजिक समरसता बढ़ती है। यही वजह है महाकवियों और पुराणों में भी पितृकर्म को धर्म और नीति का अंग बताया गया है। त्रिपिंडी श्राद्ध केवल पूर्वजों की आत्मा की शांति नहीं कराता, बल्कि वंशजों को भी पितृ ऋण से मुक्ति दिलाता है। यह संस्कार जीवन और मृत्यु के बीच सांस्कृतिक सेतु का काम करता है। काशी के पिशाचमोचन कुंड में होने वाला त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों की संतुष्टि और वंशजों के जीवन में सुख-शांति सुनिश्चित करता है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है, कृतज्ञता का पाठ पढ़ाता है और भविष्य की पीढ़ियों के कल्याण का मार्ग दिखाता है. इस कर्मकांड में तीन पीढ़ियों के पिंडदान का दिव्य अनुष्ठान होता है। तीन पिंड, तीन ध्वज और तीन देवता: ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशेष साधना की जाती है।

सुरेश गांधी

भारतीय जीवनदर्शन में मनुष्य मात्र शरीर और आत्मा का संयोग नहीं, बल्कि तीन ऋणों का धारक है: देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। इन ऋणों में पितृऋण सबसे सहज, किन्तु सबसे गंभीर माना गया है, क्योंकि हम जो कुछ भी हैं, वह अपने पूर्वजों की देन है। उनके द्वारा बोए गए संस्कार, अर्जित संपत्ति, संचित पुण्य और जीवन की परंपराएं ही हमें प्राप्त होती हैं। इसी ऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध का विधान है, और जब कई पीढ़ियों का स्मरण एक साथ किया जाए तो वह कहलाता है, त्रिपिंडी श्राद्ध। त्रिपिंडी श्राद्ध यानी पिछली तीन पीढ़ियों के पूर्वजों के पिंडदान। यदि किसी परिवार में किसी पूर्वज की मृत्यु कम उम्र, अकाल या वृद्धावस्था में हुई हो, तो उनकी आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए यह अनुष्ठान अनिवार्य माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार, पितर ही अपने कुल की रक्षा करते हैं। यदि उनकी तृप्ति न हो तो वंशजों का जीवन बाधाओं, रोग और असफलताओं से प्रभावित हो सकता है। त्रिपिंडी श्राद्ध के माध्यम से पितरों को संतुष्टि मिलती है और आने वाली पीढ़ियों का कल्याण सुनिश्चित होता है। मतलब साफ है त्रिपिंडी श्राद्ध केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पितृलोक और जीवित लोक को जोड़ने वाला आध्यात्मिक सेतु है। यह हमें याद दिलाता है कि हमारा अस्तित्व अकेला नहीं, बल्कि शताब्दियों की परंपराओं, तप और संस्कारों से जुड़ा हुआ है। जैसे वृक्ष की जड़ें सिंचित होने पर शाखाएं हरी-भरी होती हैं, वैसे ही पितरों को तृप्त करने पर संतानों का जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण होता है।

यथार्थ में यह केवल तीन पीढ़ियों का तर्पण मात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण पितृपरंपरा के प्रति समर्पित आह्वान है। ऐसा माना जाता है कि जब पूर्वजों को भूले-भटके संतानों द्वारा स्मरण नहीं मिलता, तब वे त्रिपिंडी श्राद्ध की कामना करते हैं। ‘महाभारत’ में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को श्राद्ध की महिमा समझाते हुए कहा था कि “श्राद्ध तर्पण से पितर संतुष्ट होकर वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन और धर्म की सिद्धि प्रदान करते हैं।” पद्मपुराण में उल्लेख है कि यदि श्राद्ध विधि से न किया जाए तो पितृ आत्माएं ‘प्रेत योनि’ में भटकती रहती हैं और स्वप्न में संकेत देती हैं। ऐसे में त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों को स्थायी शांति और तृप्ति प्रदान करता है। कहा जा सकता है त्रिपिंडी श्राद्ध भारतीय जीवन की उस परंपरा का प्रतीक है, जहां मनुष्य अपने जीवन को केवल स्वयं तक सीमित न रखकर, अतीत और भविष्य की कड़ी के रूप में जीता है। यह संस्कार स्मरण कराता है कि पितरों को तृप्त कर हम न केवल अपने ऋण का निर्वाह करते हैं, बल्कि अपने वंश की जड़ों को भी सींचते हैं। कालिदास ने रघुवंश में पितरों को अन्न-जल अर्पित करने का उल्लेख किया है। तुलसीदास ने रामचरितमानस में श्राद्ध को धर्म और नीति का अंग बताया। लोकगीतों और कथाओं में पितृपक्ष को ‘कातिके बरखा’ की तरह भावुकता से जोड़ा गया है।

काशी में त्रिपिंडी श्राद्धः पितरों की मुक्ति और वंशजों का कल्याण

त्रिपिंडी श्राद्ध की तिथियां और विधि

पितृपक्ष, भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक, पितरों की आत्माओं के स्वागत और श्राद्ध के लिए विशेष काल माना जाता है। यही वह काल है जब माना जाता है कि पितरों की आत्माएं अपने वंशजों के पिंडदान और तर्पण की प्रतीक्षा करती हैं। इसके लिए भोर की बेला में शुद्ध स्नान के पश्चात संकल्प लिया जाता है। कुश के आसन पर बैठकर, तिल, चावल, जौ, घी और मधु से तीन पिंड बनाए जाते हैं। यह तीनों पिंड क्रमशः तमोगुणी प्रेतों के लिए, रजोगुणी प्रेतों के लिए, सात्त्विक प्रेतों के लिए। किया जाता है. इन पिंडों के साथ तीन ध्वज भी लगाए जाते हैं, काला, लाल और सफेद। ये ध्वज क्रमशः तामस, राजस और सात्त्विक योनियों की मुक्ति का प्रतीक हैं। इस विधि में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की पूजा विशेष रूप से की जाती है। ब्रह्मा: जीवन के सृजन और मृत्यु के क्षरण का प्रतीक। विष्णु: संतुलन और करुणा के देवता, जो दुःख हरते हैं। शिव: संहारक होते हुए भी करुणामूर्ति, जो आत्मा को मोक्ष प्रदान करते हैं। मंत्रोच्चार के साथ एक-एक पिंड क्रमशः पितृ, पितामह और प्रपितामह को अर्पित किया जाता है। तर्पण के पश्चात ब्राह्मण भोजन कराया जाता है और दक्षिणा अर्पित कर यह अनुष्ठान पूर्ण होता है। त्रिपिंडी श्राद्ध किसी भी दिन किया जा सकता है, किंतु शास्त्रकारों ने विशेष तिथियां बताई हैं, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी व अमावस्या. इन दिनों में किया गया त्रिपिंडी श्राद्ध पितरों को अधिक शीघ्र और स्थायी संतुष्टि प्रदान करता है। विशेष रूप से अमावस्या का दिन पितृमोक्ष का प्रधान दिन माना गया है। इसके विधि-विधान इस प्रकर है:-

  • 1. संकल्प: यजमान पवित्र होकर संकल्प करता है कि वह अपने पितरों के निमित्त त्रिपिंडी श्राद्ध करेगा। संकल्प में तीन पीढ़ियों, पिता, पितामह और प्रपितामह का स्मरण किया जाता है।
  • 2. देवता आह्वान: ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतीकात्मक मूर्तियां (सोना, चांदी और ताम्र से निर्मित) स्थापित की जाती हैं। यह मूर्तियां त्रिगुणात्मक प्रेतबाधाओं को शांति प्रदान करने का प्रतीक हैं।
  • 3. पिंडदान: जौ और चावल से तीन पिंड बनाए जाते हैं। इन्हें क्रमशः तीन पीढ़ियों को समर्पित किया जाता है। पहला पिंड, प्रपितामह को दूसरा पिंड, पितामह को व तीसरा पिंड पिता को, इसके अतिरिक्त यदि परिवार में कोई अकाल मृत आत्मा हो, तो उसके लिए भी विशेष पिंड समर्पित किया जाता है।
  • 4. ध्वज स्थापन: काला, लाल और सफेद झंडे लगाए जाते हैं। काला झंडा : तामसिक प्रेतों की शांति के लिए, लाल झंडा: राजसिक प्रेतों की शांति के लिए, सफेद झंडा : सात्त्विक प्रेतों की शांति के लिए लगाया जाता है।
  • 5. तर्पण और हवन: गंगाजल, दूध, तिल, पुष्प और खीर से तर्पण किया जाता है। तत्पश्चात हवन करके पितरों को अग्नि के माध्यम से 'ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः', आहुति दी जाती है।
  • 6. ब्राह्मण भोजन और दान : ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा दी जाती है। गौ को चारा अर्पित करना भी अनिवार्य माना गया है।

काशी में त्रिपिंडी श्राद्धः पितरों की मुक्ति और वंशजों का कल्याण

त्रिपिंडी श्राद्ध की सामग्री

इस अनुष्ठान में प्रयुक्त सामग्री अपने आप में प्रतीकात्मक है। जौ, चावल और तिल, शुद्धता और संतुष्टि के प्रतीक। गंगाजल: पवित्रता और अमरत्व का प्रतीक। सोना, चांदी और ताम्र मूर्तियां: त्रिगुणात्मक सृष्टि का द्योतक। ध्वज: प्रेतबाधाओं की शांति के संकेत। नारियल, सुपारी, पान: संपूर्णता, शुभता और मंगल का प्रतीक। खीर, पंचमेवा, गुड़, शहद: तृप्ति और मधुरता के प्रतीक। रुद्राक्ष माला, कपूर, धूप: शिवत्व और दिव्यता का आह्वान।

कौन कर सकता है त्रिपिंडी श्राद्ध?

ज्येष्ठ पुत्र, पौत्र, भ्राता या निकट संबंधी, अविवाहित पुरुष और पति-पत्नी जोड़ी, विधुर पुरुष व आवश्यक स्थिति में कन्या या पुत्री भी कर सकती है. किंतु महिलाओं द्वारा अकेले यह श्राद्ध करने की परंपरा नहीं है। यह अनुष्ठान उन परिवारों के लिए विशेष आवश्यक है जिस व्यक्ति के कुल में पितृदोष है, अथवा जिसकी वंश परंपरा में अकाल मृत्यु की घटनाएं अधिक हुई हों, उसे जीवन में एक बार अवश्य त्रिपिंडी श्राद्ध कराना चाहिए।

त्रिपिंडी का फल

कुल में पितृदोष का शमन होता है। परिवार में संतान, स्वास्थ्य और समृद्धि का आशीर्वाद मिलता है। वंश में अकाल मृत्यु और संकट दूर होते हैं। आत्मा और पूर्वजों के बीच अदृश्य बंधन मजबूत होता है। पितरों की तृप्ति से कुल की ऊर्जा संतुलित होती है, परिवार में शांति आती है और संतान के जीवन में नई दिशाएं खुलती हैं। धर्मग्रंथों में कहा गया है कि त्रिपिंडी श्राद्ध करने वाला अपने पितरों को ‘स्वर्ग मार्ग’ का दीप देता है।

नारायण बलि और त्रिपिंडी श्राद्ध

यह अनुष्ठान अकाल मृत्यु या असामान्य मृत्यु (जैसे दुर्घटना, आत्महत्या, हिंसा, गर्भपात) से पीड़ित आत्माओं की शांति हेतु किया जाता है। भगवान विष्णु (नारायण) ब्रह्मा, विष्णु, महेश (त्रिगुणात्मक) को साक्षी मानकर गेहूं के आटे से कृत्रिम शरीर बनाकर उसका प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार किया जाता है। यह अनुष्ठान प्रायः काशी, त्र्यंबकेश्वर (नासिक), सिद्धपुर (गुजरात) और गया (बिहार) जैसे विशेष तीर्थों पर संपन्न होता है। यह तीन पीढ़ियों के पितरों की तृप्ति हेतु किया जाता है। इससे सम्पूर्ण वंश की तीन पीढ़ियों की आत्माओं की शांति एंव मोक्ष मिलती है। इसमें जौ-चावल के पिंड अर्पित किए जाते हैं। यह विशेष रूप से काशी के पिशाचमोचन कुंड पर करने का विधान है। नारायण बलि : व्यक्ति विशेष की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है. यह तीर्थ और प्रायश्चित पर आधारित है. जबकि त्रिपिंडी श्राद्ध नियमित पितृकर्म की परंपरा का हिस्सा है।

गयाश्राद्ध की कथा

कहा जाता है कि गया में जब भगवान राम ने अपने पितृ दशरथ के लिए पिंडदान किया, तब गयाधर पर्वत ने स्वयं को आहूत किया और कहा, “यह स्थल पितरों की तृप्ति का परम स्थान होगा।” तभी से गया में किया गया श्राद्ध और विशेषकर त्रिपिंडी श्राद्ध, अक्षय फलदायी माना जाता है। किंवदंती है कि स्वयं भगवान विष्णु ने गयाधर पर आकर यमराज से कहा, 'जो यहां अपने पितरों के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध करेगा, उसे स्वर्गलोक का मार्ग सुलभ होगा।'

पितृलोक और त्रिपिंडी

गर्व और मोह में डूबे मनुष्य अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनके पीछे अनगिनत पीढ़ियां खड़ी हैं। शास्त्र कहते हैं कि पितृलोक में तीन पीढ़ियां, पितृ, पितामह और प्रपितामह अपनी संतानों से तर्पण की प्रतीक्षा करती हैं। त्रिपिंडी श्राद्ध के तीन पिंड इन्हीं के लिए होते हैं। जब ये पिंड अर्पित होते हैं, तो मानो स्वर्ग के पथ पर दीपक प्रज्वलित हो जाते हैं और पितृ संतुष्ट होकर वंशज को आशीष देते हैं।

त्रिपिंडी श्राद्ध की आवश्यकता

जब किसी परिवार में वर्षों तक श्राद्ध नहीं किया जाता, जब वंश में अचानक अवरोध या संकट दिखाई देते हैं, जब पितरों की अशांति स्वप्न या जीवन की परिस्थितियों में संकेत देने लगती है, तब त्रिपिंडी श्राद्ध करने का विधान है। यह श्राद्ध न केवल अनुष्ठानिक है, बल्कि एक नैतिक दायित्व है, पूर्वजों को स्मरण करना, उन्हें तृप्त करना और उनके आशीर्वाद से जीवन की दिशा को प्रशस्त करना।

मृत्यु और मोक्ष व पिशाचमोचन का रहस्य

वाराणसी केवल एक नगर नहीं, बल्कि वह तीर्थ है जहां जीवन और मृत्यु की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं। यहां मृत्यु कोई भय का विषय नहीं, बल्कि मुक्ति का उत्सव है। काशी में अंतिम प्राण त्यागने वाला शिव की करुणा का अधिकारी बनता है। मतलब साफ है काशी में मृत्यु स्वयं महाकालेश्वर शिव के अधीन है। यहां कालभैरव रक्षक हैं और विश्वनाथ मुक्तिदाता। स्कंद पुराण कहता है कि काशी वह भूमि है जहां मृत्यु भी मोक्षदायिनी हो जाती है। इसी काशी में एक अद्भुत स्थल है, पिशाचमोचन कुंड। यह केवल जल का स्रोत नहीं, बल्कि शास्त्रों में वर्णित उन दुर्लभ तीर्थों में से एक है, जहां पितरों की प्रेतबाधा और अकाल मृत्यु से पीड़ित आत्माओं की मुक्ति का उपाय मिलता है। श्राद्ध और पिंडदान की परंपरा भारत की आत्मा में रची-बसी है। क्योंकि हमारे ऋषियों ने माना कि जीवित पीढ़ियां केवल अपनी मेहनत से नहीं, बल्कि पूर्वजों के आशीर्वाद से भी फलती-फूलती हैं। यदि पितरों की आत्मा असंतुष्ट हो, तो वह वंशजों के जीवन में बाधा डालती है। इसी पितृ शांति के लिए त्रिपिंडी श्राद्ध का विधान है, और वह भी विशेष रूप से काशी के पिशाचमोचन कुंड पर। लोकश्रुति है कि गंगा जब तक धरती पर नहीं उतरी थी, तब तक काशी के इस कुंड का जल पितरों की तृप्ति का साधन बना हुआ था। यह कुंड मानो देवताओं की करुणा का मूर्त रूप है, जिसने मृतात्माओं को मुक्ति का मार्ग दिखाया। कुंड के पास स्थित है एक प्राचीन पीपल वृक्ष। इस वृक्ष की जड़ में सिक्का अर्पित करने की परंपरा है। विश्वास है कि यह सिक्का केवल धातु का टुकड़ा नहीं, बल्कि पितृऋण से मुक्ति का प्रतीक है। जैसे ही यजमान सिक्का अर्पित करता है, पितर संतुष्ट हो जाते हैं और उनके आशीर्वाद से कुल में शांति और समृद्धि लौट आती है। शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्थल इतना पवित्र है कि स्वयं प्रेतात्माएं भी यहां आकर अपनी व्यथा का अंत करती हैं। यही कारण है कि इसे पिशाचमोचन कहा गया, अर्थात वह स्थान जहां प्रेतबाधा समाप्त होती है।

प्रेतबाधा

भारतीय दर्शन में प्रेत केवल भूतिया छवि नहीं, बल्कि असंतुष्ट आत्मा का प्रतीक है। यह असंतोष तब उत्पन्न होता है जब आत्मा का शरीर से अचानक वियोग होता है, या जीवन की इच्छाएं अधूरी रह जाती हैं। शास्त्र कहते हैं कि प्रेतबाधा तीन प्रकार की होती है, सात्त्विक प्रेत, जो अपने अधूरे धर्म और ज्ञान के कारण बंधे रहते हैं। ऐसे प्रेत जिनके कर्म अपेक्षाकृत शुभ रहे, किंतु पिण्डदान और श्राद्ध संस्कार के अभाव में वे बीच की स्थिति में अटक जाते हैं। राजसिक प्रेत, जो वासनाओं और अधूरी महत्वाकांक्षाओं में उलझे रहते हैं। जिन्हें असमय मृत्यु या आकस्मिक दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा हो। उनका असंतोष उन्हें बांधे रखता है। तामसिक प्रेत, जो क्रोध, हिंसा और नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण पीड़ा में रहते हैं। वे आत्माएं जो पाप, अधर्म, अत्याचार या नशे जैसी प्रवृत्तियों में फँसी रहीं। इनकी मुक्ति अत्यंत कठिन मानी जाती है। त्रिपिंडी श्राद्ध का उद्देश्य इन तीनों स्तरों की आत्माओं को शांति देना है। जब वे संतुष्ट होती हैं, तो वंशजों के जीवन से बाधाएं हटती हैं और परिवार में सुख-समृद्धि लौटती है।

काशी का संदेश

काशी के पिशाचमोचन कुंड से यही आह्वान होता है, 'हे मनुष्य! अपने पुरखों को मत भूलो। उनकी स्मृति, उनकी शांति और उनके आशीर्वाद में ही तुम्हारा जीवन सार्थक है।' काशी की पावन भूमि पर जब पिशाचमोचन कुंड में त्रिपिंडी श्राद्ध सम्पन्न होता है, तब केवल पितरों की आत्मा ही शांत नहीं होती, बल्कि जीवित वंशजों का मन भी एक अद्भुत हल्कापन और शांति का अनुभव करता है। यही इस अनुष्ठान की सबसे बड़ी उपलब्धि है।


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