सुरेश गांधी
जी हां, अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जिस तरह जेएनयू में आएं दिन हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी की घटनाएं हो रही है, उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। क्योंकि जेएनयू शिक्षा का मंदिर है, आतंकियों की प्रशिक्षणशाला नहीं, जहां देश के विरोध में पलन बढ़ने की आजादी और हर दिन किसी न किसी साजिश को अंजाम दिये जाने की छूट दी जाय। किसी भी सरकारी गैर सरकारी समस्याओं व फैसलों के विरोध में धरना प्रदर्शन तो ठीक है, लेकिन कश्मीर की आज़ादी के पोस्टर लहराना, अफजल तेरे कातिल जिन्दा है हम शर्मिंदा है, देश के टुकड़े होंगे हजार, जैसे नारे लगाना ये बताता है कि जेएनयू अब शिक्षा नहीं देश विरोधी ताकतों का गढ़ बनता जा रहा है। समय रहते इसका इलाज नहीं किया गया तो ये देश के लिए घातक होगा।
फिरहाल, बड़ा सवाल तो यही है आखिर क्या वजह है कि जेएनयू में एक खास विचारधारा के लोग संविधान को बचाने की कोशिश करते हैं..लेकिन धारा 370 पर देश की संसद के फैसले को नहीं मानते, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर इनके लिए मायने नहीं रखते और कश्मीर को देश की मुख्धारा में लाना..इन्हें बिल्कुल पसंद नहीं आता। मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया पर विरोध प्रदर्शन के दौरान इन लोगों ने जिस तरह फ्री कश्मीर के पोस्टर लहराएं हैं, वो तो किसी भी दशा में क्षम्य योग्य नहीं है। खासकर जेएनयू कैंपस में नकाबपोशों द्वारा की गयी बर्बरता तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि कश्मीर से धारा 370 हटाए 180 से ज्यादा दिन बीत चुके हैं। यानी धारा 370 से कश्मीर को मिली आज़ादी के 6 महीने बीत जाने के बाद भी ये लोग आजादी मांग रहे हैं, तो यह शर्मनाक ही है। प्रदर्शन में वो जेएनयू का पूर्व छात्र नेता उमर खालिद भी है, जिसका नाम दिल्ली पुलिस की उस चार्जशीट में है...जिसमें उन पर देशद्रोह के आरोप लगाए गए हैं। या यूं कहे जेएनयू की हिंसा के पीछे टुकड़े-टुकड़े गैंग भी है? इनका मकसद सिर्फ राजनीति, नारेबाज़ी, लड़ाई-झगड़ों और हिंसा करना है।
देखा जाए तो जेएनयू में हर घटनाओं के पीछे सिर्फ राजनीति है। राजनेता अपनी-अपनी विचारधारा के हिसाब से छात्रों को मुहरा बनाते है। उन्हें हिंसा , नारेबाज़ी और विरोध प्रदर्शनों की आड़ में हिंसा को बढ़ावा देते है, फिर यहां होने वाली घटनाओं के नाम पर वोट मांगते हैं। दिल्ली में एक बार फिर चुनाव है। चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही कैंपस में हिंसा का दौर शुरु हो गया है। शनिवार और रविवार से शुरु विवाद हिंसक हो गया। कुछ नकाबपोश कैंपस में दाखिल होते है, तोड़फोड़ करते है। छात्रों और टीचरों को मारते पिटते है। इन लोगों के हाथ में लाठी-डंडे, और हथौड़े भी थे। इस हिंसा में कई छात्र घायल हुए। कई छात्रों को गंभीर चोट आई तो कई छात्रों को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इस हिंसा में वामपंथ समर्थित छात्र संघ अध्यक्ष आइशी घोष भी घायल हो गईं। हालांकि इस घटना से पहले लोगों ने घायल होने की बात कही है।
यही वजह है कि क्राइम ब्रांच को लग रहा है कि इस पूरी हिंसा को एक सोची समझी साजिश के तहत अंजाम दिया गया है। क्राइम ब्रांच को लग रहा है कि बाहरी लड़को को किसी जेएनयू में बुलाने से पहले ही सर्वर को डैमेज कर दिया था। बता दें कि हिंसा के मामले में छात्र संघ अध्यक्ष आइशी घोष सहित अन्य 18 लोगों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है। अब सवाल ये है कि अगर ये छात्र आंदोलन कर रहे हैं तो फिर इन्हें अपने चेहरे छिपाने की क्या ज़रूरत है। एक वीडियो में दावा किया जा रहा है कि आइशी घोष..कुछ नकाब-पोश लोगों को कैंपस के अंदर दाखिल करा रही हैं। मतलब साफ है जेएनयू में जो कुछ भी हो रहा है उसमें वामपंथी ही उसके लिए जिम्मेदार है। इसलिए कुछ लोग जेएनयू को बंद करने की मांग कर रहे है। क्योंकि अब राजनीतिक पार्टियां भी इसमें कूद पड़ी हैं। कैंपस....राजनीतिक युद्ध का केंद्र बन गए हैं।
विश्वविद्यालयों को राजनीति का केंद्र होना चाहिए या नहीं इस पर दो राय हो सकती है। लेकिन इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि शिक्षण संस्थानों में हिंसा के लिए कोई स्थान कतई नहीं होना चाहिए। देश के प्रतिष्ठित जेएनयू में रविवार को जो हुआ वह किसी भी सूरत में नहीं होना चाहिए था। आधी रात को हॉकी स्टिक व लाठियों के साथ नकाबपोशों ने विश्वविद्यालय में घुसकर चुन-चुन कर छात्रों व शिक्षकों को पीटा। इससे दो दर्जन छात्र छात्राएं व 3 शिक्षकों को गंभीर चोटे आई। उनका चेहरा छिपा था इसलिए उन्हें पहचाना नहीं जा सका। सुबह होते ही आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। कोई वामपंथी छात्र संगठन तो कोई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पर आरोप लगा रहा है। सच तो जांच के बाद ही सामने आ सकेगा लेकिन नागरिकता कानून, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जिस तरह देश में उत्तेजना पूर्ण माहौल है और इसके समर्थक व विरोध में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं उससे टकराव की आशंका लगातार बनी हुई है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने अपने छात्र संगठनों को नियंत्रण में रखें।
इतिहास गवाह है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान नहीं हुआ है। विश्वविद्यालय शिक्षा के सर्वोच्च संस्थान हैं। दुनिया को देखने समझने का नजरिया विकसित करने और समस्याओं के समाधान का रास्ता खोजने का भावी दायित्व छात्रों के कंधों पर होता है। दुनिया को न तो एक चश्मे से देखा जा सकता है और और ना ही ऐसी कोशिश होनी चाहिए। हम चाहे तो इसे अपने सभ्य होने का एक पैमाना भी मान सकते हैं कि हमारे समाज में विद्यार्थियों को विचार-विमर्श और अपनी मान्यता रखने की कितनी आजादी है। भारत की सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में है। अपने विश्वविद्यालयों को आजाद रखने का महत्व हमने सबसे पहले जाना था। तक्षशिला नालंदा और विक्रम शीला विश्वविद्यालयों का इतिहास बताता है कि प्राचीन काल में भी विश्वविद्यालय विचारधाराओं के विकसित होने का महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने से लेकर आपातकाल की बंदिशों से निकलने तक में छात्र-छात्राओं की कॉफी भूमिका रही है। गौर करने वाली बात यह भी है कि वर्तमान में सत्ता पक्ष या विपक्ष के कई बड़े नेता छात्र राजनीति की ही देन है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उन्हें कुछ भी करने की आजादी है। जाहिर है कोई भी आजादी तभी तक जायज हो सकती है जब तक वह दूसरों की आजादी न छीनने लगे। जेएनयू में छात्र छात्राओं को अपने विचारों को आगे बढ़ाने की स्वतंत्रता तभी तक बची रह सकती है जब तक इससे दूसरों की आजादी पर असर ना हो। इसके लिए सबसे पहले तो यही जरूरी है कि समाज विरोधी व देश विरोधी ताकतों की पहचान की जाए। और उन्हें सख्त सजा मिले, इसी में सबका हित है। क्योंकि जेएनयू में जो हुआ वह भारत के उच्च शिक्षा के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा।
बता दें, जेएनयू देश की सबसे महंगी ज़मीनों में से एक पर बसाया गया है। कैंपस साउथ दिल्ली में है। इसे 1 हज़ार 19 एकड़ ज़मीन पर बसाया गया है। प्रॉपर्टी डीलर्स के मुताबिक इस इलाके में शैक्षणिक संस्थानों के लिए ज़मीन का दाम करीब 10 करोड़ रुपये प्रति एकड़ है। यानी इसकी कीमत एक लाख करोड़ रुपये है। इस वर्ष भारत का शिक्षा बजट सिर्फ 94 हज़ार करोड़ रुपये है। यानी हमारे इस वर्ष के शिक्षा बजट का मूल्य भी जेएनयू की ज़मीन की कीमत से कम है। अमेरिका के तीन पूर्व राष्ट्रपतियूनिवर्सिटी के छात्र रहे हैं...इसके अलावा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा भी छात्र रहे हैं। मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, विदेश मंत्री एस जय शंकर का नाम भी शामिल हैं। एक सर्वे के मुताबिक जेएनयू दुनिया में 7वें नंबर की सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी है। यहां की पढ़ाई आज भी देश की कई विश्व विद्यालयों के मुकाबले बहुत सस्ता है। जेएनयू को केंद्र सरकार से 352 करोड़ रुपये की सब्सिडी भी हासिल होती है। और यहां पढ़ने वाले हर छात्र पर 4 लाख 35 हज़ार रुपये प्रतिवर्ष खर्च किए जाते हैं। यानी दूसरे सरकारी संस्थानों के मुकाबले 20 गुना कम फीस यहां के छात्र चुकाते हैं। बॉम्बे में होस्टल की वार्षिक फीस 20 हज़ार रुपये है और दिल्ली में 15 हज़ार रुपये। लेकिन राजनैतिक पार्टियां यहां से...हिंसक, देश विरोधी, और सत्ता विरोधी, छात्र नेताओं की कुंडली बाचते है। यही वजह है कि जेएनयू बार बार राजनीति और हिंसा का अड्डा बनती है।


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