जन्मदिन (18 फरवरी) पर विशेष
रणजीत पांचाले
सांझी संस्कृति का शहर बरेली, वसीम साहब के दिल में बसता है और वसीम साहब बरेलीवासियों के दिलों में रहते हैं। उन्हें इस शहर की तहजीब पर बहुत फख्र रहा है। वसीम साहब ने 2009 में बरेली पर लिखी एक नज्म में कहा था-
मेरे शहर की बात न पूछो, मेरा शहर महान।
इसके एक-एक घर आंगन में जिये है हिन्दुस्तान।।
अगले साल ही इस शहर में साम्प्रदायिक दंगा हो गया। दुकानों-मकानों को आग लगाकर कुछ गुमराह लोगों ने इस शहर की गंगा-जमुनी तहजीब को ही राख कर देने की कोशिश की। जिन बच्चों व नौजवानों ने दंगे और कर्फ्यू का सिर्फ नाम सुना था। उन्होंने उसके असर को महसूस कर लिया। कई दिनों तक घरों में बंद रहने के बाद उनके दिलों में हिन्दू व मुसलमान का फर्क घर कर गया। वसीम साहब के लिये यह बहुत बड़ा धक्का था। दंगे से चंद महीने पहले ही लिखी उसी नज्म में उन्होंने कहा था-
मिली-जुली बस्ती में बसता रिश्तों का विश्वास,
दीवाली और ईद के सम्बन्धों की अमर मिठास।
प्यार मोहब्बत मेल-मुरब्बत है इसकी पहचान,
इस के एक-एक घर आंगन में जिये है हिन्दुस्तान।।
वसीम बरेलवी।
अब शहर की वह पहचान मिट रही थी। हिन्दू-मुसलमानों की मजबूत एकता का जो ख्वाब वसीम साहब ने देखा था, वह टूट गया था, इसीलिये जब फिर से शहर में अमन-चैन कायम करने के लिये कुछ जिम्मेदार लोगों ने मीटिंग की तो उसमें वसीम साहब की आंखें छलक आई थीं। जो बिखर गया है, उसे कैसे संभाला जाय, दिलों से फर्क को कैसे दूर किया जाय, कैसे आपसी भाईचारा पहले जैसा हो-यही सब बातें तब से आज तक वसीम साहब के जेहन में हैं। अपनी शायरी और तकरीरों के जरिये वह दिलों को जोड़ने की लगातार कोशिशें कर रहे हैं।
वह सच्चे वतन परस्त हैं। हिन्दुस्तान उनके वजूद में समाया हुआ है। इस देश की परंपराओं और संस्कृति पर उन्हें नाज है। 6 नवम्बर 2009 को जब उन्हें अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में ‘अली सरदार जाफरी लिटरेरी अवार्ड’ से नवाजा गया था तब उन्होंने वह सम्मान अपनी मातृभूमि को समर्पित किया था। आज उनका कलाम हिन्दुस्तानियत का पैरोकार बन चुका है। वह कहते हैं- ‘मेरी फिक्र गजल को हिन्दुस्तानियत का आइना बनाने की है। रिश्तों की मर्यादाओं के लिहाज से हिन्दुस्तान जैसी अजीम सरजमी दुनिया में होना मुश्किल है।’
देश-विदेश में इतना सम्मान मिलने पर किसी में भी अहंकार पैदा हो सकता है लेकिन वसीम साहब आज भी पहले जितने सहज हैं। आसानी से उपलब्ध हैं और मजबूती से अपनी जमीन से जुड़े हुये हैं। उन्हें विदेश में पढ़ाने-बसने के प्रस्ताव मिले। मगर उन्होंने यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि ‘मैं अपना मुल्क या शहर तो क्या, अपनी गली भी नहीं छोड़ सकता।’
वसीम साहब शायरी में फारसी निष्ठ उर्दू को पसंद नहीं करते हैं। उन्होंने बहुत सरल लफ्जों का इस्तेमाल किया है, इसीलिये गहरे अर्थ लिये उनकी गजलें आम आदमी के दिल को छूती हैं। उनकी मकबूलियत का यही राज है। इसी वजह से उनके कई शेर लोगों की जुबान पर चढ़ गये हैं। लम्बी-चौड़ी बात को थोड़े से लफ्जों में कहने के लिये लोग उनके अशआर का सहारा लेते हैं। उनका यह शेर तो अब मुल्क में तकरीरों (भाषणों) में खूब दोहराया जा रहा है-
उसूलों पर जहां आंच आये, टकराना जरूरी है।
जो जिंदा हो तो जिन्दा नजर आना जरूरी है।।
हिन्दुस्तान ने कभी किसी मुल्क पर हमला नहीं किया। किसी की जमीन पर कब्जा नहीं किया। यह अमनपसंद-सहनशील मुल्क है। ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत में यकीन रखता है।अब इन तमाम बातों को सिर्फ दो लाइनों में कहने का हुनर शायद वसीम साहब के पास ही हो सकता है-
देखे जाते नहीं मुझ से हारे हुए।
इसीलिए मैं कोई जंग जीता नहीं।।
भारतीयों को कमजोर आंकने की कोई गलती न करे। उनके इस शेर में समूचे भारत का चरित्र समाया हुआ है-
वैसे तो एक आंसू ही बहाकर मुझे ले जाय।
ऐसे कोई तूफान हिला भी नहीं सकता।।
इन्सानी रिश्तों में मोहब्बत की अहमियत को उन्होंने इन लफ्जों में बखूबी बयां किया है-
अगर वह आसमानों में बुलाए तो चले जाना।
मोहब्बत करने वाले फासला देखा नहीं करते।।
कल वसीम साहब पूरे 79 साल के हो जायेंगे। यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि वसीम साहब का असली जन्मदिन 18 फरवरी है। यह बात खुद वसीम साहब ने मुझे एक बार उनके साथ हुई बहुत लम्बी बातचीत में बतायी थी। 8 फरवरी उनके स्कूल सर्टिफिकेट में गलती से लिख दी गयी थी। तब से अब तक हर जगह उनकी जन्मतिथि 8 फरवरी 1940 लिखी जा रही है।
मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह उन्हें लम्बी उम्र दे और ताउम्र उनकी कलम इसी तरह चलती रहे।



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