भतृहरि के वैराग्यशतक में वर्णित है कि-
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
अर्थात् हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोग ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल (समय) कहीं नहीं जाता बल्कि हम स्वयं चले जाते हैं ; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं!
अर्थात् समय नही बीतता हम बीतते हैं।
ज्ञात इतिहास में कभी किसी ने सोचा भी नही था कि एक दिन ऐसा आएगा जब सम्पूर्ण जगत थम जाएगा। हमनें सम्पूर्ण ब्रह्मांड को अपने मुट्ठी में रखने को सोचा, हम चांद पर बस्तियां बना लेने को आतुर थे,हमने मंगल पर आधिपत्य बनाने के प्रयास शुरू किए लेकिन एक बीमारी ने हमे ऐसा लाचार कर दिया है कि हमे आज कुछ सूझ नही रहा। सारा ज्ञान-विज्ञान इतनी उपलब्धियों के बाद भी अभी तक इसका सटीक इलाज नही खोज पाया। आज मानव को अपना अस्तित्व ही बचाना सबसे बड़ी चुनौती हो चली है।समय नही है, का रोना रोने वाले आज करोना के चलते विवश-लाचार और बेबस हैं। समय को कैद करने वाले लोंगों का समय नही कट रहा। सारे संसाधन हैं लेकिन दुनिया की बात छोड़िए पड़ोसी के यहां नही बैठ पा रहे। वे आज कहीं जा नही सकते और उनके पास कोई आ नहीं सकता।
हे महाकाल अब आपसे ही उम्मीद है-
आशुतोष तुम्ह अवढर दानी।
आरति हरहु दीन जनु जानी॥
हे सदाशिव! आप मेरी विनती सुनिए। आप आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होने वाले) और अवढरदानी (मुँहमाँगा वरदान देने वाले) हैं। अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर सभी के दुःख को दूर कीजिए॥

(फेसबुक वाल से... )
डा. मनोज मिश्र
विभागाध्यक्ष
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, पूविवि, जौनपुर

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