सुरेश गांधी
दिल्ली चुनाव की तारीखों के साथ ही आचार संहिता लागू हो गई है। चुनाव आयोग के कार्यक्रम के मुताबिक 70 विधानसभा सीटों पर 8 फरवरी को वोटिंग होगी। जबकि 11 फरवरी को परिणाम आयेंगे। इसी के साथ कांग्रेस बीजेपी और आम आदमी पार्टी सहित सभी राजनीतिक दल अपनी अपनी जीत के दावे के बीच सियासी बिसात बिछाने में जुट गए हैं। कुल करीब 1.47 करोड़ (1,46,92,136) मतदाता वाटिंग करेंगे। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या दिल्ली में चलेगा मोदी शाह का राष्ट्रवादी जादू? या कांग्रेस करेगी करामात या फिर खाएगी मात? या फ्री फार्मूले के भरोसे फिर लौटेंगे केजरीवाल?
फिलहाल, दिल्ली के सिंहासन पर किसका होगा शासन की चर्चा तेज हो गयी है। एक तरफ सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सामने सत्ता को बचाए रखने की चुनौती है। तो दुसरी तरफ कांग्रेस अपना सियासी वजूद बचाने और अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कवायद में जुटी है। कांग्रेस को अब भी उम्मींद है कि 15 साल के विकास के सहारे एक बार फिर उसे मौका मिलेगा। बीजेपी दिल्ली में करीब 21 साल से सत्ता का वनवास झेल रही है। ऐसे में सत्ता में वापसी के लिए हरसंभव कोशिश में भाजपा भी जुटी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह तक दिल्ली में रैलियां कर चुके हैं। सभी का मुकाबला केजरीवाल पांच साल के कामकाज को लेकर है। लेकिन सभी की निगाहें मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण पर टिकी है। क्योंकि केजरीवाल को लगता है कि ‘फ्री प्लान‘ व मुस्लिम वोटों के बूते वह फिर से अपना झंडा बुलंद करेंगे। जबकि कांग्रेस को भी मुस्लिम वोटों पर ही भरोसा है। भाजपा चाहती है कि जितना मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होगा, उसके जीत की राह आसान होगी। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है क्या मुस्लिम वोट ही होंगे दिल्ली के चुनाव में निर्णायक? क्या केजरीवाल को डरा रहा है मुस्लिम वोटों में सेंधमारी का डर? क्या अबकी बार केजरीवाल के ‘फ्री प्लान‘ का है इम्तिहान?
जहां तक भाजपा का सवाल है वो महाराष्ट्र, हरियाणा के बाद झारखंड में भी राष्ट्रीय मुद्दों पर ही जनता से वोट मांगा। दिल्ली की रैलियों में भी पीएम मोदी व शाह राष्ट्रीय मसलों पर बोलते रहे। अब जब चुनावी बिगुल बज चुका है तो वो फिर से राष्ट्रीय मुद्दों को हवा देने में जुट गयी है। रैली में पीएम मोदी का भाषण भी नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और अर्बन नक्सल, कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और अयोध्या में राम मंदिर जैसे मुद्दों के आसपास केंद्रित रहा है। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष लगातार दिल्ली के लोगो की बिजली, पानी, प्रदूषण जैसे मुद्दो को उछालकर केजरीवाल को घेरते रहे है। बता दें कि दिल्ली विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। दिल्ली की सत्ता के संघर्ष में आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और बीजेपी के बीच त्रिकोणीय मुकाबला माना जा रहा है। दिल्ली में पहली बार 1993 में विधानसभा चुनाव हुए थे। तब बीजेपी जीतकर सत्ता पर काबिज हुई थी। लेकिन पांच साल के कार्यकाल में बीजेपी को अपने तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे। मदनलाल खुराना, साहेब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे। अब यह तीनों ही नेता दुनिया को अलविदा कह चुके हैं।
इसके बाद 1998 में विधानसभा चुनाव हुए। तब शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस को जीत मिली। बीजेपी को सत्ता से विदा होना पड़ा। उसके बाद से पार्टी आजतक वापसी नहीं कर सकी है। साल 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से बीजेपी महज 3 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी थी। जबकि 67 सीटें आम आदमी पार्टी को मिली थीं। इस चुनाव में कांग्रेस अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी। दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव 1993 में हुआ। इससे पहले दिल्ली चंडीगढ़ की तरह केंद्र शासित प्रदेश हुआ करता था, जहां विधानसभा नहीं थी। दिल्ली में पहले चुनाव में बीजेपी कमल खिलाने में कामयाब रही थी। दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में बीजेपी 47.82 फीसदी वोट के साथ 49 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। कांग्रेस को 34.48 फीसदी वोट के साथ 14 सीटें मिली थीं। इसके अलावा 4 सीटें जनता दल और तीन सीटें निर्दलीय के खाते में गई थी।
बीजेपी को प्रचंड जीत दिलाने का सेहरा मदनलाल खुराना के सिर सजा था। मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने लेकिन 26 फरवरी 1996 को उन्हें अपने पद से हटना पड़ा और पार्टी ने उनकी जगह साहेब सिंह वर्मा को सत्ता की कमान सौंपी। हालांकि साहेब सिंह वर्मा को भी बीजेपी ने चुनाव से ऐन पहले हटाकर 12 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज को सीएम बना दिया। सुषमा स्वराज के नेतृत्व में ही बीजेपी 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव मैदान में उतरी, लेकिन पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं हो सकी। दिल्ली में दूसरी बार विधानसभा चुनाव 1998 में हुआ। बीजेपी की ओर से चेहरा सुषमा स्वराज तो कांग्रेस की ओर से शीला दीक्षित थीं. दिल्ली का चुनाव इस तरह से दो महिलाओं के बीच हुआ और इस जंग में शीला दीक्षित बीजेपी की सुषमा स्वराज पर भारी पड़ीं। 1998 में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 47.76 फीसदी वोट के साथ 52 सीटें जीतने में कामयाब रहीं। वहीं, बीजेपी को 34.02 फीसदी वोट के साथ 15 सीटें मिलीं। इसके अलावा तीन सीटें अन्य को मिलीं। दिल्ली में बीजेपी को 34 सीटों का नुकसान हुआ तो कांग्रेस को 38 सीटों को सियासी फायदा मिला। दिल्ली में कांग्रेस की जीत का सेहरा शीला दीक्षित के सिर सजा। शीला दीक्षित दिल्ली के दिग्गज नेताओं को पीछे छोड़ते हुए मुख्यमंत्री बनीं।
दिल्ली में 2003 में तीसरी बार विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी ने शीला दीक्षित के खिलाफ मदनलाल खुराना पर दांव खेला, लेकिन वो अपना करिश्मा नहीं दिखा सके। 2003 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 48.13 फीसदी वोट के साथ 47 सीटें जीतने में कामयाब रही और बीजेपी 35.22 फीसदी वोट के साथ 20 सीटें ही जीत सकी। इसके अलावा तीन सीटें अन्य को मिलीं। इस बार भी कांग्रेस की जीत का श्रेय शीला दीक्षित को मिला और वह एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहीं। दिल्ली में चौथी बार विधानसभा चुनाव 2008 में हुए। इस चुनाव में भी शीला दीक्षित सब पर भारी पड़ीं। बीजेपी ने शीला दीक्षित के खिलाफ विजय कुमार मल्होत्रा पर दांव खेला लेकिन वो भी कामयाब नहीं रहे। 2008 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 40.31 फीसदी वोट के साथ 43 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। बीजेपी को 36.34 फीसदी वोटों के साथ 23 सीटें से संतोष करना पड़ा और तीन सीटें अन्य को मिलीं। इस तरह शीला दीक्षित दिल्ली में जीत की हैट्रिक और मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रही।
दिल्ली में पांचवी बार विधानसभा चुनाव 2013 में हुए। इस चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा तीसरे राजनीतिक दल के तौर पर आम आदमी पार्टी उतरी। अन्ना आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के सियासी समीकरण को बिगाड़कर रख दिया। 2013 के विधानसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से बीजेपी 33 फीसदी वोटों के साथ 31 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं, अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उतरी आम आदमी पार्टी ने 29.5 फीसदी वोट के साथ 28 सीटें जीती और कांग्रेस को 24.6 फीसदी वोटों से साथ महज 8 सीटें ही मिलीं। इस तरह से दिल्ली में किसी को भी बहुमत नहीं मिला। ऐसे में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया और अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। हालांकि, केजरीवाल ने 49 दिन तक सीएम रहने के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव से ऐन पहले सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली में छठी बार 2015 में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में केजरीवाल बीजेपी और कांग्रेस दोनों पर भारी पड़े। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से आम आदमी पार्टी को 67 सीटें मिलीं तो बीजेपी को महज तीन सीटें ही मिल सकी। वहीं, कांग्रेस दिल्ली में खाता भी नहीं खोल सकी। दिल्ली में प्रचंड जीत के बाद अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने।

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