सुरेश गांधी
दिल्ली में विकास को नया आयाम देने वाली पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों का सफल आयोजन कर दिल्ली शहर की क्षमताओं को दुनिया को दिखाया। 50 से अधिक देशों की टीमें दिल्ली आईं। दिल्ली में बने मॉडर्न खेल गांव और स्टेडियम में बेहतरीन सुविधाएं विकसित कर ’यूपी की बहू’ शीला दीक्षित की सरकार ने देश का गौरव बढ़ाया और आधुनिक हो रहे भारत की ताकत का एहसास कराया। 81 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस लेने वाली शीला दीक्षित ने उस उम्र में भी दिल्ली कांग्रेस को कठिन दौर से उबारने की कठिन चुनौती स्वीकार की, जिस उम्र में लोग रिटायरमेंट के बाद आराम कर रहे होते हैं। कांग्रेस के प्रति वो कितनी समर्पित थी इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक कांग्रेस के लिए फिक्रमंद थीं। अपने आखिरी संदेश भी उन्होंने सोनभद्र में धरने पर बैठी प्रियंका के समर्थन में बीजेपी कार्यालय के बाहर प्रदर्शन को कहा था।
शीला दीक्षित कांग्रेस के अंदरूनी सत्ता समीकरण में भी बेहद सहज नहीं थीं, लेकिन उन्हें अपनी मंजिल का पता था। उन्हें पता था कि राजनीति में उनका रास्ता विकास की गलियों से ही गुजरेगा। शीला दीक्षित 3 दिसंबर 1998 को दिल्ली के लिए नया दौर लेकर आईं। संयोग के नए झोंकों के साथ वह उस दिन दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी थीं। संयोग इसलिए क्योंकि शीला दीक्षित को उसी साल दिल्ली प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कमान मिली थी। उसी साल प्याज की कीमत में आग लगी और दिल्ली में मजबूत जड़ों वाली बीजेपी को तिनके की तरह उड़ जाना पड़ा। वो 1998 की दिल्ली थी जब सड़क पर ब्लू लाइन बसें तांडव करती नजर आतीं थी। जब दिल्ली की सड़कों पर वाहनों का लंबा रेला लगता था, जब दिल्ली में घर से दफ्तर पहुंचना ओलंपिक में मेडल जीतने जैसा था। शीला को ऐसी दिल्ली मंजूर नहीं थी। 2019 की जिस दिल्ली पर हम रश्क करते हैं, उसकी बुनियाद शीला दीक्षित ने दो दशक पहले ही रख दी थी। इसीलिए उन्हें आधुनिक दिल्ली का शिल्पकार भी कहा जाता है। 15 साल के कार्यकाल में दिल्ली का कायाकल्प करने का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। अपने कुशल नेतृत्व और तजुर्बे से उन्होंने पार्टी को नए मुकाम तक पहुंचाया। जिसका नतीजा यह रहा कि शीला दीक्षित दिल्ली की सत्ता पर अंगद के पैर की तरह जमी रहीं।
यह अलग बात है शीला दीक्षित का निधन ऐसे समय हुआ है, जब कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के मुहाने पर है। पार्टी को उम्मीद थी कि शीला 1998 का इतिहास दोहराते हुए कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाएंगी। लेकिन चुनाव से पहले ही शीला सबकी आंखें नम कर चली गईं। विकास के बूते ही वो 1998 से 2013 तक तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। इस दौर में दिल्ली में कई मॉडर्न सुविधाओं में इजाफा हुआ। शीला दीक्षित को दिल्ली की तस्वीर बदलने के लिए किए गए कार्यों के लिए हमेशा याद किया जाएगा। देश की राजधानी दिल्ली में ट्रैफिक सिस्टम सुधारने, प्रदूषण नियंत्रण और कल्चरल मेल-मिलाप के लिए उनके काम हमेशा याद किए जाएंगे। बता दें, शीला दीक्षित की 2012 की सर्दियों में दूसरी एंजियाप्लास्टी हुई थी और उनका परिवार चाहता था कि वह राजनीति छोड़ दें लेकिन तब 16 दिसम्बर सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना हुई जिसके बाद उन्होंने मन बनाया कि वह ‘‘मैदान छोड़कर नहीं भागेंगी।’’ दीक्षित द्वारा थकान और सांस लेने में परेशानी की शिकायत करने के बाद चिकित्सकों ने इस बात की पुष्टि की कि उनकी दाहिनी धमनी में 90 प्रतिशत रुकावट है और वह एंजियाप्लास्टी की प्रक्रिया से गुजरीं। विधानसभा 2017 के चुनाव से पहले तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की वाराणसी में रोड शो आयोजित था। रोड शो के दौरान ही सोनिया गांधी की तबीयत बिगड़ गई। जनता की भीड़ सड़क किनारे खड़ी थी। डाक्टरों के लाख कोशिश के बाद भी रोड शो करने की हिम्मत सोनिया गांधी को नहीं हुई तो शीला दीक्षित जनता के बीच जाने का निर्णय लिया। रोड शो की कमान संभाली और उसे तय स्थान तक पहुंचाया।
शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली में आधुनिक मेट्रो सेवा की शुरुआत हुई थी। 24 दिसंबर 2002 को शाहदरा-तीस हजारी के बीच दिल्ली की पहली मेट्रो सेवा चली थी। इसके बाद से दिल्ली में मेट्रो परिवहन का सबसे मॉडर्न और विस्तृत साधन बन चुकी है। शीला दीक्षित 2013 तक दिल्ली की सीएम रहीं। इस दौरान दिल्ली मेट्रो के फेज-1 औऱ फेज-2 का काम पूरा हुआ, रिंग रोड मेट्रो और तीसरे फेज के लिए प्रस्ताव को मंजूरी मिली। दिल्ली के एक बड़े हिस्से तक मेट्रो की पहुंच उनके कार्यकाल में हुई। शीला दीक्षित के दौर में ही दिल्ली में सीएनजी यानी क्लीन एनर्जी की शुरुआत की गई थी। डीजल और पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों की जगह सीएनजी से चलने वाली बसें और ऑटो ने दिल्ली को क्लीन एनर्जी के रास्ते पर आगे बढ़ाया। 2009 में शीला दीक्षित ने दिल्ली में लो-फ्लोर बसों की शुरुआत की। 2010 में शीला दीक्षित की सरकार ने दिल्ली में पहली बार सीएनजी हाइब्रिड बसों की शुरुआत की। प्रदूषण मुक्त बसों की ये सुविधा भारत के किसी शहर में पहली बार मिली थी। दिल्ली की अवैध कॉलोनियों में विकास के प्रस्ताव को पहली बार शीला दीक्षित की सरकार ने मंजूरी दी थी। लीक से हटकर शीला दीक्षित ने सरकारी फंड को अवैध कॉलोनियों में विकास के लिए खर्च करने की वैधानिक व्यवस्था की। इसके बाद से अवैध कॉलोनियों में रह रहे लोगों को भी नालियों-सीवर, पीने के पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं मुहैया हो सकीं।
सड़कों और फ्लाईओवर्स का जाल बनाकर शीला दीक्षित के काल में दिल्ली सरकार ने परिवहन और यातायात की सुविधाओं का विकास किया। शहर के बाहर से बाइपास निकालकर बाहर से आने वाली गाड़ियों को सुविधा दी तो इससे राजधानी दिल्ली में ट्रैफिक जाम की समस्या कम हुई। खास बात यह है कि 15 साल के कार्यकाल में 5 साल केंद्र में बीजेपी सरकार के साथ मिलकर शीला दीक्षित ने काम किया। शीला दीक्षित कांग्रेस की सीएम थीं और तब केंद्र में बीजेपी की अटल सरकार थी। शीला दीक्षित ने बेहतर सामंजस्य स्थापित कर मेट्रो, हाईवे, बिजली समेत तमाम ऐसे प्रोजेक्ट पास कराए जिससे दिल्लीवालों की जिंदगी में बड़े बदलाव आए। शीला दीक्षित ने पहली बार लड़कियों को स्कूल में लाने के लिए ’सेनेटरी नैपकिन’ बंटवाए। उन्होंने दिल्ली में कई विश्वविद्यालय बनवाए और ’ट्रिपल आईआईटी’ भी खोली।’’ सन 2013 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद शीला को कांग्रेस में हाशिए पर धकेल दिया गया। पार्टी ने उन्हें राज्यपाल बनाकर राजनीति से नेपथ्य में भेज दिया था। शीला ने पार्टी के इस फैसले को भी सर-माथे पर लिया। शीला राज्यपाल बनकर दिल्ली की राजनीति से दूर हो गईं। लेकिन उनके बाद पार्टी की कमान संभालने वाले अजय माकन और अरविंदर सिंह लवली पार्टी को मजबूत करने में नाकामयाब रहे। पार्टी के लगातार खराब प्रदर्शन और 2019 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के 2017 विधानसभा चुनाव से ठीक पूर्व कांग्रेस को शीला दीक्षित की याद आई। पार्टी ने उन्हें एक समय मुख्यमंत्री पद का अपना उम्मीदवार तक घोषित कर दिया था। हालांकि सपा से गठबंधन के बाद उनकी उम्मीदवारी पार्टी ने वापस ले ली थी। बाद में उन्हें दिल्ली कांग्रेस की कमान सौंप दी गई।
शीला दीक्षित का जीवन कई राज्यों में बीता। उनका जन्म पंजाब के कपूरथला में 31 मार्च 1938 को हुआ था। लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में हुई। दिल्ली के जीसस एंड मैरी स्कूल से उन्होंने शुरुआती शिक्षा ली। इसके बाद मिरांडा हाउस से उन्होंने मास्टर्स ऑफ आर्ट्स की डिग्री हासिल की। शीला दीक्षित युवावस्था से ही राजनीति में रुचि लेने लगी थीं। उनकी शादी उन्नाव के रहने वाले कांग्रेस नेता उमाशंकर दीक्षित के आईएएस बेटे विनोद दीक्षित से हुई। विनोद से उनकी मुलाकात दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास की पढ़ाई करने के दौरान हुई थी। उन्हें ’यूपी की बहू’ भी कहा जाता है। शीला दीक्षित ने राजनीति के गुर अपने ससुर से सीखे थे। उमाशंकर दीक्षित कानपुर कांग्रेस में सचिव थे। पार्टी में धीरे-धीरे उनकी सक्रियता बढ़ती गई और वे पूर्व पीएम जवाहरलाल नेहरू के करीबियों में शामिल हो गए। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं तो उमाशंकर दीक्षित देश के गृहमंत्री थे। ससुर के साथ-साथ शीला भी राजनीति में उतर गईं। एक रोज ट्रेन में सफर के दौरान उनके पति की हार्ट अटैक से मौत हो गई थी। 1991 में ससुर की मौत के बाद शीला ने उनकी विरासत को पूरी तरह संभाल लिया। उनके दो बच्चे संदीप और लतिका हैं। शीला दीक्षित जल्द ही गांधी परिवार के भरोसेमंद साथियों में शुमार हो गईं। इसका उन्हें इनाम भी मिला। वह 1984 में कन्नौज से लोकसभा चुनाव लड़ीं और संसद पहुंच गईं। राजीव गांधी कैबिनेट में उन्हें संसदीय कार्यमंत्री के रूप में जगह मिली। बाद में वह प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री भी बनीं। राजीव गांधी के निधन के बाद सोनिया गांधी ने भी उनके ऊपर पूरा भरोसा जताया।
1998 में उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का चीफ बनाया गया। तब भी कांग्रेस की हालत बेहद पतली थी। कांग्रेस के टिकट पर वह पूर्वी दिल्ली से चुनाव मैदान में उतरीं, लेकिन बीजेपी के लाल बिहारी तिवारी ने उन्हें शिकस्त दी। बाद में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनावों में उन्होंने जोरदार जीत हासिल की और वह मुख्यमंत्री बन गईं। 2013 में उन्हें आप पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के हाथों शिकस्त मिली। हार के बाद वे राजनीति में एक तरह से दरकिनार कर दी गईं। बाद में उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया गया। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया और दिल्ली लौट आईं। इसके बाद उन्होंने दमदार वापसी की और पूर्व कांग्रेस चीफ राहुल गांधी ने भरोसा जताते हुए उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी। 2019 लोकसभा चुनावों में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल चाहते थे कि कांग्रेस और आप का गठबंधन हो जाए। लेकिन शीला दीक्षित ने इसका खुलकर विरोध किया और आखिरकार उनकी ही मानी गई। शीला दीक्षित का फिल्म से भी लगाव था। उन्होंने शाहरुख खान की फिल्म “दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे“ कई बार देखी थी। शीला ने ये फिल्म इतनी ज्यादा बार देखी थी कि घरवालों को ये कहना पड़ा था कि अब इस फिल्म को अब मत देखें। ये फिल्म साल 1995 में रिलीज हुई थी। ’सिटीजन दिल्ली- माई टाइम, माई लाइफ़’ नाम की किताब में शीला दीक्षित ने अपने राजनीतिक जीवन से जुड़े कई वाकिये का जिक्र किया है। इस किताब में लिखा है कि उनके पति विनोद दीक्षित ने उन्हें डीटीसी में प्रपोज किया था। इस किताब में शीला कपूर से शीला दीक्षित बनने की रोचक घटना का जिक्र है।




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