साहित्यकार व साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डा.काशीनाथ सिंह से उनकी लेखन कला, भूमण्डलीकरण, बदलता भारतीय समाज, शिक्षा व्यवस्था सहित अन्य ज्वलंत मुद्दों पर सर्वेश मिश्र की बातचीत-
प्रश्नः- वर्तमान में हिन्दी को आप कहां पाते हैं जबकि अंग्रेजी का जोर बढ़ता जा रहा है?
उत्तरः- हिंदी दिनोंदिन महत्वपूर्ण भाषा होती जा रही है। ‘ग्लोबलाइजेशन’ जब शुरू हुआ था, काल सेण्टर वगैरह बढ़ रहे थे और सारे समाचार चैनल अंग्रेजी में आ रहे थे तो लग रहा था कि हिन्दी को कोई पूछने वाला न होगा, क्योंकि बच्चों के स्कूल में भी अधिकांश बच्चे व अभिभावक अंग्रेजी को महत्व देने लगे थे। बच्चे घर में भी अंग्रेजी बोलने लगे थे लेकिन भाषा के प्रचार-प्रसार का सम्बन्ध बाजार से है। जैसे-जैसे भारत दुनिया की नजर में बाजार होता गया और उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के लोग भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में बढ़ते गये, वैसे-वैसे हिन्दी भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में अपने लिये बाजार बनाने लगी। हिन्दी ने टेक्नोलॉजी में भी अपनी जगह बना ली। वाट्सएप, सोशल मीडिया, मैसेज भी अंग्रेजी के बजाय हिन्दी में लिखे जाने लगे। वे चैनल जो पहले अंग्रेजी के थे, ने भी हिन्दी की आवश्यकता महसूस की। अखबार भी ज्यादा से ज्यादा आंचलिक होने लगे और हिन्दी में छपने लगे। यह महसूस किया जाने लगा और कारपोरेट ने भी महसूस किया कि भारत जैसे देश में सिर्फ अंग्रेजी से काम नहीं चलेगा। भारतीय भाषाओं खासकर हिन्दी। यहां तक की जो संसद और न्यायालय अंग्रेजी भाषी थे, उनमें भी हिन्दी अपना वर्चस्व बनाने लगी, इसलिये मुझे नहीं लगता कि हिन्दी का भविष्य नहीं है। हम दिनोंदिन हिन्दी का विस्तार ही देख रहे हैं, क्योंकि अब विदेशों में कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है जिसमें हिन्दी न पढ़ाई जाती हो।
वरिष्ठ साहित्यकार काशीनाथ सिंह से साक्षात्कार
करते पीएचडी स्कॉलर सर्वेश मिश्र।
प्रश्नः- कान्वेंट स्कूलों की बढ़ती आबादी व सरकार की तरफ से हिन्दी माध्यमों के प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में करना कहां तक उचित है?
उत्तरः- मेरी एक धारणा यह है कि जो शिष्टजनों की भाषा होती है, वह क्रमशः मृतप्राय होती जाती है। वह भाषा विकास करती है जो लोक में बोली जाती है। इसका मोटा सिद्धांत है कि लोक में व्यवहृत जो भाषा है। व्याकरण में निबद्ध भाषा प्रायः मृत है तो जिस हिन्दी को पुस्तकों में कैद किया गया है, उसकी आयु बहुत लम्बी नहीं है। वह परीक्षा व प्रतियोगिता के लिये तैयारी करते हैं लेकिन बोलते अपनी भाषा हैं। चाहे वह हिन्दी हो या भारतीय भाषा हो।
प्रश्नः- आपने अपने उपन्यासों व कहानियों में जो बदलते गांव का चित्रण किया है, उस बदलाव को कहां पा रहे हैं इस समय?
उत्तरः- मैंने जिन गांवों का चित्रण किया है, वे लगभग 2010-11 तक के गांव हैं जिन्हें मैंने जीयनपुर में देखा था। शहर में नहीं, बल्कि गांव में एक-दूसरे के दुःख-सुख में लोग भागीदार होते थे। दो भाई भी एक परिवार में रह लेते थे। उनकी पत्नियां, बच्चे व घर की औरतें रहती थीं। ऐसे में बताऊं कि मैं पूर्वांचल के गांवों को अपने गांवों से जोड़कर देखता हूं कि और गांवों में क्या होता होगा? मेरे ही गांव में अब हर व्यक्ति का अलग-अलग परिवार है परंतु अब वह परिवार भी नहीं रह गया है, क्योंकि उनके बेटे पढ़ या अपढ़ चाहे जैसे हों, गांव से बाहर निकल गये हैं और सबने खेती अधिया पर दे रखी है। अब कोई खेत में काम करना नहीं चाहता। अपने खेत व जमीनें लोग बेच रहे हैं। उनकी जमीनें मझोले व छोटी जातियों के लोग खरीद रहे हैं। नहर या सड़क के किनारे छोटी दुकानें व गुमटियों बनाकर लोग सामान बेच रहे हैं। जिनके बच्चे बाहर हैं और ज्यादातर लोगों के बाहर हैं, वे चाहे उत्तर प्रदेश के किसी शहर के हों या मध्य-प्रदेश में, वो वहीं पर टूटी-फूटी कोठरी बनाकर अपने बच्चों के साथ गुजारा कर रहे हैं। गांव में रहने वाले उनके मां-बाप जानते हैं कि अब उनके बच्चे वापस गांव नहीं आने वाले। जो थोड़े बहुत किसानी कर रहे हैं, वे भी खून के आंसू रो रहे हैं, क्योंकि उनकी मेहनत की लागत पैदावार से नहीं आ रही है। इस तरह मैं गांव की हालात बहुत चिंताजनक मानता हूं।
प्रश्नः- ‘अपना मोर्चा’ जैसा उपन्यास विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से बाहर रखना कहां तक जायज है?
उत्तरः- यह उपन्यास जब छपा तो बेहद चर्चित और लोकप्रिय हुआ था। यह लिखा गया था 1969 में परंतु प्रकाशित हुआ 72 में। खास तौर से युवा पीढ़ी ने इसका बड़ा स्वागत किया था। बहुत सारे लोग मुझसे कहते थे कि विवाह के समय जो प्रजेंटेशन दिया जाता था, उसका उदाहरण ‘अपना मोर्चा’ से दिया जाता था। जैसा तुमने प्रश्न किया है तो यह कोर्स में लगाकर हटा दिया गया। इसको हटाने का कारण अध्यापकों पर की हुई टिप्पणियां हैं जिससे उन्हें लगता है कि उनके ऊपर जुमला कसा जा रहा है।
प्रश्नः- उपसंहार में कृष्ण के बहाने आपने वर्तमान समय की विकृति, महत्वाकांक्षा सामाजिक व पारिवारिक विघटन को चित्रित करने का प्रयास तो नहीं किया है?
उत्तरः- सही समझा तुमने, वस्तुतः मेरा उद्देश्य श्रीकृष्ण के बारे में लिखना नहीं था वह मेरा बहाना था। मेरे दिमाग में कुछ बातें थीं। जैसे यह कि जैसे-जैसे आदमी बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे वह अकेला होता जाता है, यह मैंने कृष्ण के जीवन में देखा। दूसरी बात मुझे लगी कि अवतारों में कृष्ण अकेले हैं जो किसी राजवंश की उपज नहीं हैं। वे हम लोगों जैसे एक साधारण परिवार के हैं, गाय-भैंस चराने वाले। नदी के कछारों में खेलने वाले। साथियों, सहेलियों के साथ मौज-मस्ती करने वाले। जो अपनी प्रतिभा व शक्ति के बलबूते उच्चतम पद तक पहुंचते हैं। तीसरे बलराम की बातें मेरे विक्षोभ से ज्यादा मेल खाती हैं। जैसे कृष्ण धर्म के नाम पर अधर्म युद्ध करते हैं, वैसे ही आज भी सारे युद्ध शान्ति के नाम पर लड़े जाते हैं। वास्तविकता कुछ और होती है लेकिन उसके पक्ष में तर्क कुछ और दिये जाते हैं। मेरी समझ में नहीं आता कि युद्ध के पीछे कृष्ण का स्वार्थ क्या था? उनका अपना कोई स्वार्थ व हित नहीं और 18 अक्षौहिणी सेना मौत के घाट उतार दी जाती है। अपने यहां कहावत है कि ‘जैसे को तैसा’। कृष्ण ने जो कौरवों, पाण्डवों के साथ किया, अकारण नहीं है कि उसका दण्ड कृष्ण को मिला और यादव वंश का नाश हो गया। आप दूसरे को दुःख देकर कैसे सुखी रह सकते हैं? जो किया वह भोगा। जाने क्यों कृष्ण के बारे में पढ़ते हुये मुझे दूसरे विश्व युद्ध के हिटलर की याद आयी थी। पूरे यूरोप का विजय करने वाला सेनाओं का तानाशाह जिस तरह मृत्यु को प्राप्त होता है, वह दुखद है और कारूणिक भी। अकेला, निरुसहाय, दयनीयवश।
प्रश्नः- ‘उपसंहार’ पता नहीं क्यों महाभारत काल की अपेक्षा वर्तमान के अधिक निकट है। इसके सन्दर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तरः- इसका उततर तो दे चुका हूं, फिर भी कोई भी लेखक लिखता है तो अतीत उसके लिये समकालीन का प्रतिनिधित्त्व हुआ करता है। वह वर्तमान को कहीं न कहीं अतीत में देखता है। द्वारका की दुर्दशा जैसी दिखायी पड़ती है, उसमें कहीं न कहीं आज के सामान्य आदमी की भुखमरी, आत्महत्याएं, बेकारी, उदासीनता, उच्छृंखलता, पाश्विक हत्याएं, ये सारी चीजें शामिल हैं जिनसे हम आज भी रूबरू हो रहे हैं।
प्रश्नः- ‘पाठकों का संकट’ तकनीकी युग में बढ़ता जा रहा है जो रचनाधर्मिता को कहां तक प्रभावित कर रही है?
उत्तरः- पाठकों के संकट पर हर युग में बात होती है। तकनीकी युग ने संकट ही बढ़ाया है और संकट से मुक्ति भी दिलायी है। ऊपर से यह संकट उन लोगों के लिये ज्यादा है जिनके पात्र खाते-पीते उच्च वर्ग या उच्च मध्य वर्ग से आते हैं। सामान्य पाठक कहीं न कहीं अपनी छवि, अपना दुख-दर्द देखना चाहता है जो उसे वहां नहीं मिलता। ऐसे साहित्य में उसे कोई दिलचस्पी नहीं होती लेकिन जो लेखक साधारण व सामान्य आमजन के बारे में लिखते हैं, उन्हें भी लोग पढ़ें। यह आवश्यक नहीं है। आम आदमी के जीवन में समस्याएं अधिक बढ़ती जा रही हैं। मोटे तौर पर उसके जीवन में साहित्य की प्राथमिकताएं नहीं हैं। जिनकी दिलचस्पी साहित्य में है, वे भी पुस्तकों के महंगी होने के कारण हिम्मत छोड़ देते हैं। पुस्तकों पर उनकी जरूरतें भारी पड़ती हैं लेकिन आज जिस पैमाने पर पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, सम्पादकों/लेखकों की संख्या बढ़ती जा रही है। प्रकाशन संस्थान बढ़ते जा रहे हैं तो इसे देखते हुये मुझे नहीं लगता कि पाठक की संख्या कम हो रही है। हां, पुस्तकालय के सामने जरूर संकट है, क्योंकि इण्टरनेट पर कई साइट्स खुल रहे हैं जो पाठक को उनकी जरूरतों की किताबें व पत्रिकाएं मुहैया करा देते हैं। हम कथाकारों के लिये प्रेमचन्द आज भी माडर्न हैं जिनके पाठक किसी युग में कम नहीं हुये। ‘पाठकों का संकट’ का सम्बन्ध केवल साहित्य से ही नहीं, बल्कि इतर समस्याओं से भी है।
प्रश्नः- फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ के रिलीज होने पर आपको कैसा लग रहा है?
उत्तरः- देखो एक शेर है- “मिट गयी जब सब उम्मीदें मिट गये सारे ख्याल, उस घड़ी फिर नामाबर लेकर पयाम आया तो क्या?”
बहुत लम्बा इन्तजार करना पड़ा ‘मोहल्ला अस्सी’ के लिये। फिल्म के आने तक सारा उत्साह ठण्डा पड़ चुका था। यह फिल्म ऐसे लावारिस बच्चे की तरह आयी जिसे अपना कहने के लिये कोई तैयार नहीं। न इसे निर्देशक ने अपना कहा, न खुलकर निर्माता ने, न कलाकारों ने ही। इसके साथ दो हादसे हुये, बल्कि दो से ज्यादा। एक हादसा तो यह हुआ कि पर्दे पर जाने के पहले ही यह लीक हो गयी जो गर्भपात की तरह था। दूसरा हादसा यह हुआ कि सेंसर बोर्ड से लेकर हाई कोर्ट तक कई मुश्किलों से जूझना पड़ा। तीसरा हादसा यह हुआ कि एडिटिंग ठीक से नहीं हुई। कुछ बहुत अच्छे गाने इसके लिये रिकार्ड किये गये थे और गाने वाले दृश्य, उनका कोई उपयोग ही नहीं हुआ लेकिन मेरे लिये राहत की बात यह है कि साहित्य पर बनी कई एक फिल्मों की तरह डिब्बा बंद नहीं हुई। इसने पूरे देश में पर्दे का मुंह देखा। हम मानकर चल रहे थे कि लीक होने के कारण इसे दर्शक नहीं मिलेंगे लेकिन जितने दर्शक मिले, उतने को हम कम नहीं मानते, इसलिये कोई दुःख नहीं है। संतोष है कि फिल्म बनी और अच्छी ही बनी।
प्रश्नः- भारतवर्ष धार्मिक सांस्कृतिक क्षेत्र होने के साथ साहित्य सम्पन्न भी है तब क्यों भ्रष्टाचार, व्यभिचार व भोगवाद की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है व पारिवारिक सामाजिक संरचना खंडित होती जा रही है?
उत्तरः- देखो, असल चीज संस्कृति है। धर्म वसाहित्य उसके अंग हैं। धर्म के लिये यह देश ‘मानव धर्म’ के लिये जाना गया। साहित्य उसका प्रतिविम्बन था। ‘मानव धर्म’ के सिवाय और कोई धर्म था ही नहीं यहां। इसका भी प्रचार-प्रसार हुआ तो भारतीय साहित्य से हुआ। यहां के साहित्य को खास तौर से संस्कृति साहित्य को विदेशों तक प्रचार-प्रसार करने में मुगल और ब्रिटिश हुकमत की बड़ी भूमिका रही है। उपनिषदों का अनुवाद दारा शिकोह ने किया था और संस्कृत साहित्य का प्रचार-प्रसार 18वीं-19वीं शताब्दी में अंग्रेज व फ्रेंच विद्वानों ने। जिससे भाजपा सरकार आंख मूंदे है लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है। समाज में जो विकृतियां आ रही हैं, उनका निरंतर विरोध साहित्य में दिखायी पड़ता है । साहित्य मनुष्य, मनुष्य के बीच प्यार का सन्देश है । समाज में फैली विकृतियों को रोकना साहित्य के दायरे के बाहर की चीज है, यह काम सत्ता का है।
प्रश्नः- इस दिनों आप क्या खोज रहे हैं?
उत्तरः- देखो अपने लिखने की पूरी प्रक्रिया के बारे में बता रहा हूं। मैं झोंक में कुछ नहीं लिखता। मैं देखा-देखी और फैशन के चालू मुहावरों में भी नहीं लिखता। इसके पहले भी मेरे लेखन में बराबर समय-समय पर अंतराल आता गया। जब मैंने ‘अपना मोर्चा’ लिखा था तब मैं इसलिये लिखा था कि मेरे समकालीन में कोई उपन्यास नहीं लिख रहा था। फिर हमारे समकालिनों ने लिखना लगभग बंद कर दिया था तो मैंने जोर-शोर से जनवादी कहानियां लिखनी शुरू की। फिर मुझे लगा कि जैसे और जितनी कहानियां मैं लिख चुका, अब उनसे बेहतर करना मुझसे संभव नहीं। फिर मैंने रास्ता बदल दिया और फिर संस्मरणों पर उतर आये। उन्हीं में से एक रोशनी दिखायी पड़ी ‘काशी का अस्सी’ के लिये। फिर मैंने खुद को ‘काशी का अस्सी’ के लेखन में लगा दिया। हमें इस बात का नहीं भान था कि जो लिख रहा हूं, कल यह उपन्यास होगा। बस मुझे लिखना था एक स्थान के बारे में, स्थान पर नियमित बैठने वालों के बारे में, उनकी बहसों व गप्पों के बारे में, जिनमें पूरे देश की सोच-विचार और बहस की झलक मिलती थी। लिख डालने के बाद मुझे लगा कि यह तो उपन्यास है। इसके ‘हैंग-ओवर’ से मुक्त होना मेरे लिये बहुत जरुरी था आगे लिखने के लिये। फिर एक लम्बा अंतराल.....। मुझे लगने लगा कि ‘ग्लोबलाइजेशन’ को तो शहर के कस्बानुमा इलाके को बदलते देखा लेकिन जहां का मैं रहने वाला हूं, वह मेरा गांव छूट गया। इसका असर तो वहां भी पड़ा है। फिर ‘रेहन पर रग्घू’ सामने आया। इस तरह मेरे लेखक के भीतर यायावरी प्रवृत्ति रही है। चलते जाना और कुछ न कुछ नये की तलाश करते रहना। अब ‘उपसंहार’ 2014 में छप चुका है तब से 4 साल हो गये। लिखने की बेचैनी बराबर रहती है लेकिन इस बीच दूसरी बीमारियों व स्वास्थ्य चिंताओं ने मुझे बेबस कर रखा है। करना जरूर कुछ चाहता हूं लेकिन कर नहीं पा रहा हूं, दर्द यह है।
प्रश्नः- लगभग दो दशकों में खान-पान और पहनावे में काफी परिवर्तन आया है। इसके विषय में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तरः- अब इन बातों का सम्बन्ध ‘ग्लोबलाइजेशन’ से है। एक पहनावा, एक रहन-सहन, खान-पान, एक तरह का चिंतन, एक जैसा जीवन यह ‘ग्लोबलाइजेशन’ की मांग है जो भारत जैसे बहुलतावादी देश में संभव नहीं। यहां भिन्न-भिन्न जातियां हैं, उनके अपने पहनावे हैं, उनका अपना खान-पान है, उनकी अपनी भाषा है, अपने तीज-त्योहार व अपनी संस्कृतियां हैं। भारत की अपनी एक प्रकृति रही है कि वह विदेशी संस्कृति से उतना ही लेता है जितना उसके काम का होता है। बाकी छोड़ देता है। मुगलों, अंग्रेजों के युग में भी उसकी इस प्रकृति में कोई मूल परिवर्तन नहीं आया। ‘ग्लोबलाइजेशन’ भी एक आंधी की तरह है जो चला जायेगा, क्योंकि एक बड़ा तबका है इस देश का जो इसके प्रतिरोध में खड़ा है। वह वैज्ञानिक तकनीक का भले उपयोग कर ले लेकिन उसके मौलिक ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं होने वाला।
प्रश्नः- हम जैसे शोधार्थियों के लिये आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तरः- तुम्हारे प्रश्न ने मेरा ध्यान पीछे 60-70 वर्ष के अन्तर्गत हुये शोध कार्यों की तरफ आकृष्ट किया। मैं सोच रहा हूं कि जो शोध कार्य हुये हैं जो उल्लेखनीय हैं। दो-चार को छोड़कर कोई ऐसा शोध कार्य नहीं दिखायी पड़ता, इसके लिये शोधार्थियों को जिम्मेदार नहीं मानना चाहिये। कभी शोध श्रम, अध्यवसाय, अन्वेषण, ‘नीर-छीर-विवेक’ और समीक्षात्मक अन्तर दृष्टि की मांग करता था। आज इसकी भूमिका बदल गयी है। इसकी दुर्दशा के लिये बेरोजगारी और वर्तमान आधुनिक विश्वविद्यालयी व्यवस्था जिम्मेदार है। शोध को रोजगार से जोड़ दिया गया है। शोध का अर्थ ही रह गया है उपाधि प्राप्त करना। शोधार्थी जल्दी से जल्दी उपाधि प्राप्त करना चाहता है, वह जानता है कि अगर विलम्ब हुआ तो वह लम्बी कतार में बहुत पीछे चला जायेगा। वह बेकसूर होते हुये भी लाचार है लेकिन इतना जानता हूं कि वह सीमित अवधि में भी जितना अपना सर्वोत्तम दे सकता है, शोध कार्य को देना चाहता है। अपनी तरफ से वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता। शोध का सम्बन्ध जीविका से जोड़ने के कारण शोधार्थी को दोष भी नहीं दिया जा सकता। मैंने खुद जो शोध किये हैं, उन्होंने हमारे लिखने-पढ़ने के संस्कार पैदा किये। मुझे व्यवस्थित रूप से कार्य करने का संस्कार दिया। इतनी भूमिका भी मैं कम नहीं मानता हूं।





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