अजय शुक्ल
पादरी बाजार, गोरखपुर। जिले के अविनाश कुमार के जीवन की कहानी थोड़ी अलग है। वे अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े हैं। पिताजी के सरकारी नौकरी में होने के कारण घर का माहौल शैक्षिक रहा। दो भाई सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनें। इधर इन्होंने भी राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, इलाहाबाद से एमए के बाद पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। उत्तर प्रदेश पुलिस में 6 साल तक सिपाही की नौकरी की, लेकिन मन नहीं रमा। चाहते थे कि कुछ ऐसा किया जाए जिससे मन को शुकुन मिले। गांव की आबोहवा में जन्म लेने के कारण शुरू से ही प्रकृति से लगाव और प्रेम रहा। फिर सोचा खेती-किसानी की जाए। लेकिन पारंपरिक खेती में लागत ज्यादा, मुनाफा कम था, इसलिए हाथ नहीं आजमाया। फिर देखा कि अभी तक जंगलों से औषधीय पौधों का संग्रह होता आ रहा है। इस तरह तो एक दिन जंगल और वन संपदा दोनों ही विलुप्त हो जाएंगे। जंगलों को बचाने और विलुप्त हो रहे औषधीय पौधों को संरक्षित करने के उद्देश्य से जड़ी-बूटियों की खेती शुरू की।

वर्ष 2015 में एक एकड़ में औषधीय पौधों की खेती से शुरुआत करने वाले अविनाश आज किसान साथियों के साथ मिलकर औषधीय पौधों की खेती कर रहे हैं। यह महज़ एक शुरुआत है। मात्र 3 सालों की अपनी खेती-किसानी में न सिर्फ उन्होंने मुनाफा कमाया है, बल्कि अपने साथी किसानों को भी खेती में मुनाफ़ा कमाना सिखाया है। आज वे किसान भाईयों के साथ मिलकर जलभराव वाले स्थानों पर ब्राह्मी और वच की खेती कर रहे हैं, जिससे यह किसान सालाना 2 से 3 लाख रुपये कमा रहे हैं। उनकी एक बात जो दिल को छू जाती है, यह है कि वे किसी भी फसल को किसानों को लगाने से पहले खुद अपने खेत में लगाकर उसका मुनाफा देखते हैं, फिर अपने किसानों को उगाने की सलाह देते हैं।

उत्तर प्रदेश (गोरखपुर, महराजगंज, हमीरपुर और रायबरेली), बिहार (पश्चिम चंपारण, दरभंगा, समस्तीपुर, बेगूसराय, मुंगेर और मधुबनी), झारखंड, उतराखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित कुल सात राज्यों के कोई 2000 से अधिक किसानों के साथ जुड़कर विभिन्न जलवायु वाली फसलों की खेती के अलावा ब्राह्मी, मंडूकपर्णी, वच, तुलसी, कालमेघ, कौंच, भूई आंवला, कूठ, कुटकी और कपूर कचरी जैसी औषधीय महत्त्व की फसलों की खेती कर रहे हैं।
आस-पास के राज्यों के किसानों को तकनीकी शिक्षा देकर औषधीय खेती के लिए प्रेरित करने वाले अविनाश ने कम समय में ही जड़ी बूटियों की खेती में मिसाल कायम की है फलस्वरूप आज 50 एकड़ में तुलसी की खेती की जा रही है जिससे 400 क्विंटल तुलसी का उत्पादन हो रहा है। इसी तरह 50 एकड़ में कौंच की फसल ली जा रही है, जिससे 150 क्विंटल तक उत्पादन हो रहा है। कुल 800 एकड़ कृषि भूमि पर जड़ी बूटियां उगाई जा रही हैं।
अविनाश जैविक कृषि में भी हाथ आजमा रहे हैं। पूछे जाने पर वे बताते हैं,“जैविक अथवा प्राकृतिक खेती में लागत और पानी की खपत कम है। रासायनिक की तुलना में जैविक खेती टिकाऊ खेती है। खेतों को लंबे समय तक उपजाऊ बनाकर रखती है, इसलिए मैंने जड़ी बूटियों की खेती के साथ-साथ इसे भी विकल्प के रूप में चुना।”

औषधीय पौधों की खेती के माध्यम से क्षेत्र के किसानों को प्रेरित कर उनकी आय बढ़ाने में जुटे युवा किसान अविनाश बातचीत के दौरान अपने अनुभव साझा करते हुए कहते हैं,“किसानों को औषधीय पौधों की खेती के बारे में पूरी जानकारी का अभाव होता है, जिसके चलते वे परंपरागत खेती को मजबूर रहते हैं, जबकि परंपरागत खेती की तुलना में औषधीय पौधों की खेती अधिक लाभकारी एवं टिकाऊ है क्योंकि इन फसलों को परंपरागत फसलों की अपेक्षा कम खाद-पानी और ज्यादा देखरेख की आवश्यकता नहीं पड़ती और इन पौधों की खेती उपजाऊ मृदाओं के अलावा बंजर भूमि में भी हो सकती है। औषधीय पौधों का उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में किया जाता है, जिसकी मांग देश की आयुर्वेदिक कंपनियों के साथ-साथ अंतररष्ट्रीय बाजार में भी  रहती है।”
अपनी शुरुआत के लिए वे विभिन्न कृषि शोध संस्था का आभार व्यक्त करते हैं, जहां से उन्होंने औषधीय पौधों के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त की और  गोरखपुर और महराजगंज के आसपास के छोटे किसान भाईयों को निशुल्क प्रशिक्षण और बीज मुहैया करवाया। परंपरागत खेती में किसानों को 2 फसलों से 30 हजार रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा का लाभ नहीं मिल पाता था, जबकि यदि किसान औषधीय पौधों की खेती करें तो किसानों की आय में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वे कहते हैं, एकदम से नई खेती के आरंभ में थोड़ी समस्या आ सकती है, लेकिन बाद में इन पौधों की खेती की जानकारी से जुड़ी बातें जैसे कि फसलों को कब बोना है, कटाई किस समय उपयुक्त रहेगी जैसी जानकारियां हो जाने पर सब सही हो जाता है। औषधीय पौधों की खेती में कटाई एक अहम चरण होता है, क्योंकि फसल में पाया जाने वाले रसायन की गुणवत्ता इन पौधों की कटाई पर ही निर्भर करती है।
समूह बनाकर खेती करने के बारे में सोचते हुए उन्होंने वर्ष 2016 में ‛शबला सेवा संस्थान’ का गठन किया, जिसकी अध्यक्षा उनकी पत्नी किरण यादव हैं। इस गठन के पीछे उनकी सोच थी कि समूह में रहने से बाजार ढूंढने में कोई दिक्कत नहीं होगी, समूह होने से एक दूसरे के प्रति किसानों का विश्वास भी बढ़ेगा। आज यह समूह बिना किसी सरकारी मदद के उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में सफलतापूर्वक औषधीय खेती करवा रहा है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में औषधीय खेती को प्रोत्साहित करने, किसानों को इसकी खेती से जोड़कर उनकी आर्थिक स्थिति को संबल देने में आज अविनाश की महत्वपूर्ण भूमिका है।




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