जौनपुर। फागुन आ गया। आम की बगिया में बौर की महक, कोयल की कूक, पपीहे की पी कहां की बिरही बोली, फूलों पर रस के लोभी भँवरों की गुनगुनाहट, सब कुछ तो फागुन के आने की सूचना दे रहे हैं। लेकिन फागुन में भी फगुनाहट विलुप्त है। फागुनी मस्ती में सराबोर होली गीतों के विविध रूप गायब हो चुके हैं। आधा फागुन बीता लेकिन अभी तक न तो ढोलक की थाप सुनाई पड़ी और न ही फगुआ, चौताल, बेलवरिया,चइता, चहका की मस्ती भरी स्वर लहरी।
क्षेत्र के शेरवा गाँव निवासी बुजुर्ग चौताल गायक राम शकल उपाध्याय इस मस्ती भरी लोक गायकी विधा की दयनीय दशा पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यद्यपि इन गीतों का कोई लिखित ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है लेकिन परम्परागत गायकों के माध्यम से यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचता रहा है। जो अब लुप्त प्राय है। इसके पीछे दो कारण है। पहला यह कि पिछले दो दशक से इस परम्परा के गायकों की कमी हो गई। दूसरा यह कि आज का श्रोता इन गीतों को बकवास के श्रेणी में रखता है। इक्का दुक्का गावों में कुछ गायक तथा सुधी श्रोता हैं भी तो ढोलक बजाने वाले कलाकार पूरी तरह से गायब हैं।
बक्शा क्षेत्र के चुरावनपुर गाँव में डॉ. मनोज मिश्र अपने पिता स्व. डॉ राजेंद्र प्रसाद मिश्र द्वारा स्थापित लोक कला सन्स्थान के माध्यम से इसको संरक्षित करने में जुटे हैं। श्री उपाध्याय बताते हैं कि एक जमाना वह था जब बसन्त पंचमी के दिन रेड़ गाड़ कर गॉव गॉव में होलिकोत्सव शुरू हो जाता था। लगभग चालीस दिनों तक मस्तों की टोली चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि तक किसी न किसी के यहॉ ढोल मजीरा लिए पहुँच जाती थी और शुरू हो जाता था फगुआ चौताल का धमाल। रात के 11 बजे तक लोग सारी दुनियादारी भूल कर होली गीतो में रम जाते थे। आपसी प्यार सौहार्द का यह विशिष्ट संसाधन अब गायब है।
गुड़ की डली खिला कर स्वागत करने में जो संतुष्टि मिलती थी आज खास त्यौहार के दिन गुझिया छप्पन भोग में भी दुर्लभ है। इन गीतों में नायक नायिका के संयोग वियोग को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। प्रायः श्रीकृष्ण-राधा रानी के प्रतीक से हृदयस्पर्शी रचनाये प्रस्तुत कर गायक मंत्र मुग्ध कर देते थे। इन गीतों में यह विशेषता भी झलकती है कि किसी युवती द्वारा कही गयी बात- मैं तरुनी हरि छोट मिलेउ, करिहौं का, भी कहीं से फूहड़ नहीं दिखती। रतियां बलमा तोरी सेज, झुलनिया हेरानी तथा सांवरिया जुलुम गुजारा हो हमारी सेजरिया में छिपा संयोग भी परिमार्जित ही रहता है। इस विधा की बेलवरिया, चैता की मन मोहक प्रस्तुति लोगों को मंत्र मुग्ध कर देती थी। इन गीतों की एक विशेषता यह भी थी कि किसी को यदि इनके कारण ठेस भी पहुँचती थी तो भी कोई उसका बुरा नहीं मानता था। लोग मन की भड़ास इन गीतों के माध्यम से निकाल देते थे।
कबीरा सर र र के दोहे बड़े ही चुटीले होते थे जो सीधे दिल पर वार करते थे तथा घाव भी नहीं दिखाई देता था।इनकी जगह अब बाजारों में फूहड़ दो अर्थी होली गीत उपलब्ध हैं जो केवल शोर की श्रेणी में ही रखे जा सकते हैं। सवारी बसों व ट्रकों में उच्चतम वाल्यूम के साथ बजाया जाने वाला होली गीत कहीं से भी फगुनहट नही दर्शाता।पारम्परिक गीतों में रूचि रखने वाले इण्टर कालेज शाहपुर के प्रधानाचार्य सुधाकर उपाध्याय बताते हैं कि पारम्परिक होली गीतों में जो लालित्य, माधुर्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन्हें सहेजने की जरूरत है।





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