• उल्लास से मना बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व
  • जगह-जगह हुआ रावण के पुतले का दहन

सुरेश गांधी
वाराणसी। जय श्रीराम की गर्जना के साथ जैसे ही नाभि में जलता हुआ तीर लगा, रावण का अहंकार खाक होकर धराशयी हो गया। असत्य पर सत्य और पाप पर पूण्य की जीत हुई। विजयादशमी पर बुराईरुपी रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतले जलाए गये। चारों तरफ उल्लास और सत्य का उजाला विचार गया। अपने अंदर की बुराई जलाने के साथ-साथ रावण के माध्यम से भ्रष्टाचार, आतंकवाद और दुष्कर्मरुपी रावण को भी भस्म किया गया। अच्छाई को बढ़ावा देने का संकल्प लिया गया। यह नजारा शहर-शहर, गांव-गांव तक में मेले के मैदानों में दिखा। लोगों को अने-अने मोबाइल कैमरे में रावण दहन को कैद करते देखा गया। एक-दुसरे को दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं दीं। दशहरे के दिन देवी दुर्गा की मूर्तियों का विसर्जन भी किया गया। मेले में लोगों ने जमकर लुत्फ उठाया।

बेशक, नवरात्रि के बाद दसवां और अंतिम दिन विजयादशमी या दशहरा का होता है- इसका मतलब है कि आपने इन तीनों पर विजय पा ली है। आपने इनमें से किसी के भी आगे घुटने नहीं टेके, आपने हर गुण के आर-पार देखा। आपने हर गुण में भागीदारी निभायी, पर आपने अपना जीवन किसी गुण को समर्पित नहीं किया। आपने सभी गुणों को जीत लिया। ये ही है विजयदशमी है- विजय का दिन। इसका संदेश यह है कि बुराई चाहे जितनी शक्तिशाली हो, अपनी ताकत का कितना भी प्रदर्शन करती हो, लेकिन एक दिन ऐसा जरूर आता है कि वह पराजित होती है। इसलिए हमें अपने अंदर की बुराइयों और बाहर की बुराइयों से लड़ने के लिए दोहरा मोर्चा खोलना चाहिए। क्योंकि अक्सर दूसरों की कमियां नजर आती हैं। अपनी कमी-कभी दिखाई नहीं देती। अपनी कमियों को परास्त करना ही बुराई को खदेड़ना है। या यू कहें जीवन की हर महत्वपूर्ण वस्तु के प्रति अहोभाव और कृतज्ञता का भाव रखने से कामयाबी और विजय प्राप्त होती है।
लेकिन सवाल फिर वही आता है कि बुराई को खत्म करने के लिए हमें हमेशा किसी महानायक की ही जरूरत क्यों हो। या कि हम समझते हैं कि बुराई पैदा करना तो समाज का चलन है। हम जैसे मनुष्यों का काम है, उसे खत्म करना किसी और का काम। और फिर मनुष्य में अगर बुराई न हो तो वह मनुष्य कैसा, देवता न हो जाए। लेकिन नहीं, यह सिर्फ जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने और खुद को बचाने का तरीका है। जैसे कि गंदगी हम फैलाएं। अपने घर का कूड़ा चुपके से दूसरे के घर के सामने खिसका दें और फिर स्वच्छता पर एक लंबा भाषण दें। महंगाई का रोना रोएं, मिलावट की बातें करें, दुनियाभर में बढ़ते अपराधों पर चिंता प्रकट करें, बढ़ती हिंसा, बढ़ते अपराध खास तौर से बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों के प्रति। इन्हें होते देखें और सोचें कि हमें इनसे क्या? जब तक कोई मुसीबत दूसरे पर आती है, कोई बढ़ती बुराई हमें प्रभावित नहीं करती, तब तक अक्सर वह हमारे सोच का विषय नहीं बनती।
लूटपाट, हत्या, बलातकार, आरोप-प्रत्यारोप, दहेज, तीन तलाक हमारे समाज में फैली आज की बुराइयां ही तो हैं। हमें इन पर ही तो विजय पाना है। रावण ने सीताजी का अपहरण किया तो उसे इसी बात की सजा मिली और हर साल हर एक को याद दिलाते हुए मिलती है कि किसी स्त्री का अपहरण या उसे किसी न किसी तरह से परेशान करना बहुत बड़ी बुराई है। लेकिन यदि हम हर साल जारी होने वाले आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि ऐसे अपराध बढ़ते ही जाते हैं। इन अपराधियों में से बहुत से दशहरा मेला देखने भी जाते ही होंगे। ये वहां मिलती सजा को देखकर भी कुछ क्यों नहीं सीखते। या कि दुष्टता पर किसी शिक्षा का कोई असर नहीं पड़ता।