आंखों में काजल, माथे पर चंदन, सिर पर लाल पगड़ी में सज-धज युवाओं के बीच गोधूली बेला में जब भगवान राम, लक्ष्ण, भरत व शत्रुघ्न आपस में गले मिलते है, इस मनोरम दृश्य देख लोगों की आंखे भर आती है। राजा रामचंद्र समेत चारों भाईयों के जयकारे से पूरा परिसर गूंजायमान हो उठता है। इसके बाद रथ पर सवार राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, भरत, शत्रुघ्न समेत अन्य देवी-देवताओं को पूरे बनारस में घुमाया जाता है। लोग चारों भाईयों को भगवान की प्रतिमूर्ति मानकर उन्हें नमन करते है। कहते है इस दिन जब सूरज डूबता है तब भगवान का अंश यहां के राम लक्ष्मण में आ जाता है। खासियत यह है कि यहां बनने वाले राम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न सप्ताहभर पहले से अन्न सहित अन्य भोग विलासता वाली वस्तुओं का त्याग कर देते है। गंगा स्नान, पूजा-पाठ व फल आदि का ही सेवन करते है।
सुरेश गांधी
कहते हैं जब प्रभु श्रीराम के चौदह वर्ष वनवास काटने व लंका पर अपनी विजय पताका लहराने के बाद जब अयोध्या की ओर आगमन होते हैं तो इसकी सूचना मिलने पर उनके अनुज भरत उनके दर्शन को पाने के लिए एक संकल्प लेते है कि अगर गोधुली बेला तक प्रभु के दर्शन ना हुए तो वह अपने प्राण त्याग देंगे, लेकिन लीलाधारी प्रभु श्रीराम गोधुली बेला तक भरत के सामने उपस्थित हो जाते हैं। उन्हें देख भरत उनके पैरों में गिर जाते हैं जिस पर श्रीराम उन्हें गले से लगा लेते हैं। इस दृश्य को सालों से चली आ रही परंपरा को काशी के नाटी इमली मैदान पर कलाकारों द्वारा बेहद संजीदगी के साथ निभाया जाता है। चारों भाईयों के मिलन की मात्र पांच मिनट के इस अलौकिक व मनोहारी छटा को को देखने के लिए देश-विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु जुटते है। इसे देख दर्शक भाव-विभोर हो उठते है। इसके बाद धूमधाम से राम का राजतिलक किया जाता है। यह मंचन मर्यादा पुरुषोत्तम राम का चरित्र मनुष्य को आदर्शों पर चलने की सीख देता है।

मान्यता है कि संत सिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने इस परंपरा की शुरूवात की थी। गोस्वामी तुलसीदास के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे थे। एक बार तुलसीदास ने उन्हें सपने में दर्शन दिए। उनकी प्रेरणा से संत मेधा भगत ने नाटी इमली में रामलीला के मंचन की शुरुआत की। तभी से यह परंपरा लगातार चली आ रही है। यहां जैसे ही राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न एक-दूसरे को गले लगाते है मौजूद लोगों की आंखे छलछला जाती है। भगवान को अपने बीच पाकर भक्तों का रोम रोम पुलकित हो उठता है। चारों भाइयों के अलौकिक रूप की झलक पाकर पूरा माहौल जयकारे से गूंजायमान हो उठता हैै।
खास बात यह है कि भरत मिलाप के निर्वासन के 14 साल और उसके भाई, भारत के साथ अपने पुनर्मिलन के बाद भगवान राम के अयोध्या लौटने की स्मृति में मनाये जाने वाले नाटी इमली में भरत मिलाप लीला के मंचन के सम्मान में काशी के सभी जगहों की रामलीलाएं बंद कर दी जाती है। कहते है नाटी इमली में करीब 475 साल से भरत मिलाप का मंचन किया जाता है। माना जाता है जिस चबूतरे पर भरत मिलाप का मंचन होता है, वहां कभी भगवान राम ने संत मेधा भगत को साक्षात दर्शन दिए थे। इस लीला में भूतपूर्व काशी नरेश भी सम्मिलित होते हैं। भरत-मिलाप एक संक्षिप्त लीला या झाँकी मात्र है। इसमें राम-जानकी एवं लक्ष्मण बनवासी वेश में एक मंच पर खड़े रहते हैं, उनके आगमन को सुनकर भरत जो राम के समान ही तपस्वी वेश में हैं तथा शत्रुघ्न आते हैं और राम के चरणों पर गिर जाते हैं। राम एवं लक्ष्मण उन्हें उठाते हैं तथा चारों परस्पर मिलते हैं। तत्पश्चात पांचों स्वरुपों को विमान या रथ पर बिठाकर ढोया जाता है। विमान को काशी के व्यापारी वर्ग इस विश्वास से ढोते हैं कि उनका व्यापार अच्छा चलेगा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भरत-मिलाप के समय मेधाभगत को स्वरुपों में साक्षात भगवान के दर्शन हुए थे। आज भी क्षण भर के लिए स्वरुपों में ईश्वरत्व आ जाता है, ऐसा विश्वास है।

यद्यपि भरत-मिलाप एक झांकी मात्र है जो केवल पांच मिनट में समाप्त हो जाती है, परन्तु इसे देखने के लिए अपार जन समूह एकत्र होता है। रामलीला प्रांगण एवं आस-पास के छतों पर विशाल जन समूह दिखाई पड़ता है। यह लीला केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में प्रसिद्ध मानी जाती है। भारत के कोने-कोने से भक्तगण भगवान के दर्शन के लिए आते हैं। इस दिन पूरा मेला क्षेत्र बिजली की रंग-बिरंगी झालरों एवं स्थान-स्थान पर बने स्वागत तोरणों से सजा होता है। घरों की छतों-बाजारों पर महिलाओं एवं बच्चों की भीड़ देखते ही बनती है। यहां त्याग, अपनत्व, बन्धुत्व की अनूठी पवित्रतम निर्मल भाव निहित इस भरत-मिलाप में उस भरत का राम से मिलन दर्शाया जाता है जो राम का वनवास सुनकर पिता की मृत्यु क्षण भर के लिए ही सही भूल से गए, “भरतहि बिसरेहु पितु मरन, सुनत राम वन गौनु”। 14 वर्षों तक पादुकाओं का पूजन किया और अंतिम दिन विरह सागर में डूब कर भरत प्राणांत करना चाहते थे, पर प्रभु ने इस दर्द को समझ लिया। तब हनुमान जी को भेज कर अपने आगमन का मंगल संदेश दिया और भूमि पर प्रणाम कर रहे भरत को गले से लगा लिया।
त्याग, अपनत्व, बन्धुत्व की अनूठी पवित्रतम निर्मल भाव निहित इस भरत-मिलाप में उस भरत का राम से मिलन दर्शाया जाता है जो राम का वनवास सुनकर पिता की मृत्यु क्षण भर के लिए ही सही भूल से गए, “भरतहि बिसरेहु पितु मरन, सुनत राम वन गौनु”। इस लीला की महिमा ही है कि स्वयं काशी नरेश अपने रामनगर स्थित राजमहल से निकल कर प्रभु के दर्शन और परिक्रमा के लिए हाथी पर सवार होकर लीला में श्रद्धा व्यक्त करते हैं। चित्रकूट रामलीला की प्राचीनता ही इसकी धरोहर है। लीला के शुभारंभ के दौरान श्रीराम को महाराज अनंत नारायण सिंह ने सोने की गिन्नी सौंपते हैं। इसके बाद महाराज गज पर सवार होकर लॉग पुष्पक विमान की फेरी लगाते है। भगवान को गिन्नी देने की परम्परा बरसों से चली आ रही है। राम और भरत के मिलन के बाद लोग प्रसाद स्वरूप भगवान राम के गले में पड़े तुलसी माला के एक-एक पत्ते को पाने के लिए आतुर दिखते है। मान्यता है कि जिसे भगवान राम से तुलसी का प्रसाद मिलेगा उसके घर में सुख समृद्धि रहेगी।